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________________ 42 जैनविद्या 26 मोणव्वएण जोई जोयत्थो जोयए अप्पा | | 28 ।। आचार्य कहते हैं अर्हन्तादि पंच परमेष्ठी आत्मा में ही है, अतः आत्मा ही शरण है। रत्नत्रय की आराधना आत्मा की आराधना है। ज्ञान, ज्ञाता व ज्ञेय आत्मा ही है। विषयकषायों से युक्त मनुष्य को सिद्ध-सुख नहीं मिल सकता है। जो जीव विषय कषायों से विरत हो जिनेन्द्र भगवान द्वारा कथित उपदेश को ग्रहण कर तदनुकूल आचरण कर शुद्धबुद्ध आत्मा का ध्यान करता है वही परम सुख को प्राप्त करता है। ये मार्ग ही जीवनमूल्य है। लिंग पाहु 22 गाथाओं में निबद्ध इस पाहुड में साधुचर्या में समागत विसंगति/विकृतियों को उजागर कर उनसे सावधान रह बचने का सन्देश दिया है। वे कहते हैं कि साधु नग्न वेष धारण करते हैं, पर मात्र नग्नत्व से धर्म की प्राप्ति नहीं होती । जो नग्न दिगम्बर भेष धारण कर अपनी विपरीत क्रियाओं में रत रहते हैं वे उपहास के पात्र होते हैं। धर्माचरण ही लिंग धारण की सार्थकता है। जो मुनि वेष धारण कर मोहवश गाने - बजाने आदि बाहरी वृत्तियों में प्रवृत्त होते हैं, परिग्रह रखते हैं, उसकी रक्षा की चिंता करते हैं, निर्माण आदि कार्यों में लगते हैं, आहारादि में आसक्ति रखते हैं, मान करते हैं, प्रमाद और निद्रा में रहते हैं, दूसरों से ईर्ष्या करते हैं, स्त्रियों में रागभाव रखते हैं, ईर्यासमितिपूर्वक नहीं चलते हैं, सामाजिकों में भेदभाव दृष्टि रखते हैं वे अपना ही भव बिगाड़ते हैं। वे मात्र द्रव्यलिंगी मुनि हैं, श्रमण नहीं हैं। आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने द्रव्यलिंगी मुनियों को सावचेत कर रत्नत्रय की शुद्ध आराधना में भावलिंगी मुनि बनने की प्रेरणा दी है। शील पाहुड : चालीस गाथाओं में निबद्ध इस अंतिम अष्टम पाहुड में शील की महिमा बताई गई है। इस पाहुड की गाथाओं में कहा गया है कि शील एवं ज्ञान में कोई विरोध नहीं है। शील अर्थात् चारित्र का अभाव ज्ञान को भी नष्ट कर देता है। शील बिना ज्ञान का कोई महत्त्व नहीं है। आत्मा का स्वभाव ज्ञानदर्शनमयी है। ज्ञान व चारित्र का सम्यक् परिणमन सुशील है। जब तक जीव विषयों में प्रवर्तता है, तब तक वह ज्ञानस्वभावी आत्मा को नहीं जानता है। अतः विषयों का त्याग ही सुशील है। जो विषयों में आसक्त नहीं है, वे शीलगुण से मण्डित हैं और उनका ही जीवन सफल है। जीव- दया, इन्द्रिया-दमन, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, संतोष, रत्नत्रय, तपश्चरण - ये सभी शीला परिवार है।।19।।
SR No.524771
Book TitleJain Vidya 26
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2013
Total Pages100
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size6 MB
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