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________________ जैनविद्या 26 इन्द्रियों द्वारा बाह्य देह को आत्मा जाना है वह बहिरात्मा है। देहादि से भिन्न आत्मा को जानने, मानने और अनुभव करनेवाला अंतरात्मा है। द्रव्य कर्म, भाव कर्म, नौ कर्म रूप कर्म-कलंक से रहित, अनन्त गुण-युक्त परमात्मा है । बहिरात्मा को मन, वचन, व , काय से छोड़कर अन्तरात्मा का आश्रय लेकर परमआत्मत्व का ध्यान करने से निर्वाण / मुक्ति की प्राप्ति होती है (3-12)। जो पर-द्रव्य में रत है वह मिथ्यादृष्टि होकर कर्म बंध करता है, आत्म स्वभाव के अतिरिक्त सभी परद्रव्य है। जो व्यक्ति पर द्रव्य से पराङ्मुख है, आत्मा में लीन है, वह कर्म-बन्धनों से दूर होता है (13)। ध्यान से स्वर्ग और मोक्ष दोनों मिलते हैं। पर-पदार्थों में राग दुःख का कारण है। जिणवरमएण जोई झाणे झाएह सुद्धमप्पाणं । जेण लहइ णिव्वाणं ण लहइ किं तेण सुरलोयं । । 2011 41 जो जिनेन्द्र मतानुसार शुद्ध आत्मा का चिन्तन करते हैं वे निर्वाण प्राप्त करते हैं, क्या वे ध्यान के प्रभाव से स्वर्ग को नहीं प्राप्त कर सकते ? निज शुद्ध आत्म तत्त्व का ध्यान करनेवाले योगी दोनों को प्राप्त करते हैं। आचार्य उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हैं - जो जाइ जोयणसयं दियहेणेक्केण लेइ गुरुभारं । सो किं कोसद्धं पि हु ण सक्कए जाहु भुवणयले ।।21।। अर्थात् जो पुरुष महान भार को लेकर एक दिन में सौ योजन जाता है वह क्या इस भूतल पर आधा को नहीं जा सकेगा? मुनि ही नहीं, श्रावक भी सम्यक्त्व धारण कर ध्यान कर सकते हैं। क्रोध, मान, माया, लोभादि कषायों; आठ प्रकार के मदों; राग - -द्वेष- स्त्री- पुत्र -धन-धान्यादि में मोह का त्याग कर; हिंसा रहित धर्म का पालन कर, आत्म तत्त्व में लीन रह ध्यान की अग्नि से स्वर्ग व मोक्ष दोनों मिलते हैं। मौन ग्रहण करना आत्म-साधना का आवश्यक अंग है। वचनालाप द्वारा चित्त की एकाग्रता नष्ट होती है। अतः आचार्य देव ने आत्मध्यान के लिए मौन धारण का आदेश दिया है।
SR No.524771
Book TitleJain Vidya 26
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2013
Total Pages100
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size6 MB
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