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________________ जैनविद्या 26 अप्रेल 2013-2014 अष्टपाहडों का काव्यशास्त्रीय अध्ययन . - डॉ. उदयचन्द्र जैन हिदेण सह साहिच्चं, भावप्प-भावबंधगं। सहत्थ-सहिदं कव्वं, अप्पाणंद विसुद्धगं।। भाव समन्वित, भाव प्रबन्ध यदि आत्महित के साथ शब्द और अर्थ के काव्य निश्चित रूप से आत्मा की विशुद्धता को दर्शाते हैं तो प्रज्ञात्मा आनंदरूप भी प्रदान करता है। प्रज्ञात्मा का आनन्द आत्मा के विशुद्ध भावों में है। वे भाव सिद्ध अमृतत्व-दायक भी होते हैं। सूत्रार्थ के मनीषि हेय-उपादेय तत्त्व को जानते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ऐसे ही प्रज्ञा मनीषि हैं जिन्होंने सदृष्टि दी है, वे स्वयं ‘सुत्तपाहुड' की प्रथम गाथा में कहते हैं - सुत्तत्थमग्गणत्थं सवणा साहंति परमत्थं । - इस जगत में जितने भी सदृष्टि युक्त श्रमण होते हैं वे सूत्र-अर्थ, आगम वचन के अर्थ अन्वेषण से परमार्थ को सिद्ध करते हैं। सूत्र के अर्थ और पद सहित पुरुष संसार में स्थित होता हुआ भी अपने आत्मा के प्रत्यक्ष से संसार को ही नष्ट कर देते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द एक ऐसे ही परमागम के रचनाकार हैं जिनके काव्य ‘पाहुड' रूप में प्रसिद्ध हैं। ‘पाहुड' सिद्धान्त के उपहार हैं, सिद्धान्त के स्वरूप का प्रतिपादन करनेवाले काव्य हैं। इनके पञ्चास्तिकाय नामक परमागम में जहाँ सम्यक्त्व का सार है, वहीं पर स्याद्वाद की भंग-दृष्टि भी है। जीव, अजीव, पुण्य-पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष इन नौ पदार्थों की सारगर्भित विवेचना है। समयसार में चारित्र, दर्शन और ज्ञान में स्थित जीव को 'स्वसमयवाला' कहा है तथा पुद्गल कर्म प्रदेश में स्थित जीव को ‘परसमयवाला' कहा है।
SR No.524771
Book TitleJain Vidya 26
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2013
Total Pages100
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size6 MB
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