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________________ 28 जैनविद्या 26 जे दंसणेसु भट्ठा, पाए पाडंति दसणधराणं। __ते होंति लुल्लमूआ, बोही पुण दुल्लहा तेसिं।।12।। दं.पा. सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट को लूले-गूंगे इसलिए कहा क्योंकि वे गतिहीन एवं शब्द से रहित होते हैं। जैसे उन्हें रत्नत्रय दुर्लभ होता है वैसे ही सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट जीव को होता है। अट्ठपाहुड में गुण - ___ गुणयदे उक्किट्टो होदि ति गुणो जिससे किसी वस्तु की शोभा उत्कृष्ट हो जाए या वृद्धि को प्राप्त हो जाए उसे गुण कहते हैं। कव्वस्सुक्कस्स कत्तारो गुणो धम्मो ति जायदे। . काव्य के उत्कर्ष के लिए कर्ता का धर्म गुण कहलाता है। आचार्य कुन्दकुन्द के पाहुडों में आत्मोत्कर्ष की बहुलता है। इनके काव्यों में शब्दगुण और अर्थगुण दोनों ही हैंशब्द गुण - ओजप्प साद-सामित्तं समाहि-महुराणि च। सोमालत्त-उदारत्तं, अत्थं वित्ति-सुकंति च ।। ___ ओज, प्रसाद, समता, समाधि, माधुर्य, सुकुमारता, उदारता, अर्थ, व्यक्ति और कान्ति ये गुण शब्द गुण हैं। आचार्य के पाहुडों में ये सभी गुण हैं। ओज गुण - दंसणभट्टा भट्टा, दंसणभट्टस्स णत्थि णिव्वाणं। सिझंति चरियभट्टा, सणभट्टा ण सिझंति।।3।। दं.पा. ___ यहाँ पर 'भट्ट' शब्द में ओज गुण है। जो इस संसार में दर्शन/सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं, वे ही परमभ्रष्ट हैं, उन्हें निर्वाण की प्राप्ति नहीं होती है। ओज गुण में चित्त का विस्तार होता है - ओजोत्थि चित्तवित्थाएँ दित्तिं कंति च दीसदे। वीर-वीभच्छ रोद्देसुं अहिगं अहिसूचदे।। प्रसाद गुण - सहिदए सहावित्तं सदत्थरयणा पदे। पसादो आदभावेसुं, सव्वत्थ-रस-विजणे।। सर्वसाधारण रूप में शब्द और अर्थ के रचना पद में जो स्वाभाविकता होती है यह सर्वत्र रस में व्यंजित होती है और आत्मा के समस्त परिणामों में प्रसन्नता, आनन्द एवं स्वानुभूति उत्पन्न करता है वहाँ प्रसाद गुण होता है। अष्टपाहुडों में इस रस को भी प्रायः देखा जा सकता है -
SR No.524771
Book TitleJain Vidya 26
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2013
Total Pages100
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size6 MB
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