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________________ जैनविद्या 26 ___29 सम्मत्तादो णाणं, णाणादो सव्वभाव उवलद्धी। उवलद्ध-पयत्थे पुण सेयासेयं वियाणेदि।।15।। दं.पा. इस गाथा में श्रेय-अश्रेय दोनों की उपलब्धि में ज्ञान को महत्वपूर्ण माना है, इससे ज्ञानी आत्मा अपने कर्तव्य और अकर्तव्य दोनों ही रूपों को पहचानने में समर्थ होता है। सुत्त पाहुड में भी देखें - जो पुरुष सूत्र या श्रुत में स्थित होता है वह परलोक में सुखी होता है। यथा - इच्छायारमहत्थं, सुत्तठिणो जो ह छंडए कम्म। ठाणे ट्ठिय सम्मतं, परलोय सुहंकरो होइ।।14। सु.पा. समता - सम्मभावे समाभावे आद-विसुद्ध-धम्मगो समत्व में समभाव होता है जो आत्मा के विशुद्ध धर्म का बोधक माना जाता है। समता आत्मा का धर्म है, जिसे प्रत्येक पाहुड की गाथाओं से प्राप्त किया जा सकता है। णाणं दंसण सम्मं चारित्तं सोहिकारणं तेसिं। मुक्खाराहणहेडं, चारित्तं पाहुडं वोच्छे ।।2।। चा.पा. ज्ञान, दर्शन और चारित्र के समत्व में शुद्धिकरण है, विशुद्धि है। सत्तूमित्ते य समा पसंस-णिंदा-अलद्धि-लद्धि-समा। तण-कणए समभावा, पव्वज्जा एरिसा भणिया।।47।। बो.पा. प्रशंसा, निन्दा, अलद्धि/हानि - लद्धि/लाभ, शत्रु-मित्र में समभाव तथा तृण एवं सुवर्ण में समभाव होना प्रव्रज्या/दीक्षा है। समाधि - आत्मा से परमात्म तत्त्व की ओर अग्रसर होना समाधि है। समभाव से देहत्याग के परिणाम एवं समभाव का वरण पाहडों का विषय है। जो रयणत्तयजुत्तो, कुणदि तवं संजदो ससत्तीए। सो पावदि परमपदं, झायंतो अप्पयं सुद्धं।।43।। मो.पा. माधुर्य गुण - शान्त रस पूर्ण विसुद्ध आत्मचिन्तन के विषय से पूर्ण पाहुडों में माधुर्य गुण की बहुलता है। पाठक-श्रोता आदि जो भी इनके विषय को सुनता-पढ़ता या उनके गहन चिन्तन पर विचार करता है उसको अपूर्व आनन्द प्राप्त होने लगता है।
SR No.524771
Book TitleJain Vidya 26
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2013
Total Pages100
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size6 MB
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