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________________ जैनविद्या 26 (7) लिंगपाहुड बाईस गाथाओं के इस लिंगपाहुड में जिनलिंग का स्वरूप स्पष्ट करते हुए जिनलिंग धारण करनेवालों को अपने आचरण और भावों की सँभाल के प्रति सर्तक किया गया है। आरंभ में ही आचार्य कहते हैं कि धर्मात्मा के लिंग (नग्नं दिगम्बर साधु वेष) तो होता है, किन्तु लिंग धारण कर लेने मात्र से धर्म की प्राप्ति नहीं हो जाती। इसलिए हे भव्यजीवो! भावरूप धर्म को पहिचानो, अकेले लिंग (वेष) से कुछ होनेवाला नहीं है (2)। _ आगे चलकर अनेक गाथाओं में बड़े ही कठोर शब्दों में कहा गया है कि पाप से मोहित है बुद्धि जिनकी, ऐसे कुछ लोग जिनलिंग को धारण करके उसकी हँसी कराते हैं। निर्ग्रन्थ लिंग धारण करके भी जो साधु परिग्रह का संग्रह करते हैं, उसकी रक्षा करते हैं, उसका चितवन करते हैं; वे नग्न होकर भी सच्चे श्रमण नहीं हैं, अज्ञानी हैं, पशु हैं। इसीप्रकार नग्नवेष धारण करके भी जो भोजन में गद्धता रखते हैं, आहार के निमित्त दौड़ते हैं, कलह करते हैं, ईर्ष्या करते हैं, मनमाना सोते हैं, दौड़ते हुए चलते हैं, उछलते हैं, इत्यादि असत्क्रियाओं में प्रवृत्त होते हैं वे मुनि तो हैं ही नहीं, मनुष्य भी नहीं आगे चलकर फिर लिखते हैं कि जो मुनि दीक्षारहित गृहस्थों में और दीक्षित शिष्यों में बहुत स्नेह रखते हैं, मुनियों के योग्य क्रिया और गुरुओं की विनय से रहित होते . हैं वे भी श्रमण नहीं हैं। अन्त में आचार्य कहते हैं कि इस लिंगपाहुड में व्यक्त भावों को जानकर जो मुनि दोषों से बचकर सच्चा लिंग धारण करते हैं, वे मुक्ति पाते हैं। (8) शीलपाहुड शीलपाहुड की विषयवस्तु को स्पष्ट करते हुए शीलपाहुड के अन्त में वचनिकाकार पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा लिखते हैं - "शील नाम स्वभाव का है, आत्मा का स्वभाव शुद्ध ज्ञान-दर्शनमयी चेतनास्वरूप है, वह अनादि कर्म के संयोग से विभावरूप परिणमता है। इसके विशेष मिथ्यात्व-कषाय आदि अनेक हैं, इनको राग-द्वेष-मोह भी कहते हैं। इनके भेद संक्षेप में चौरासी लाख किए हैं, विस्तार से असंख्य-अनन्त होते हैं, इनको कुशील कहते हैं। इनके अभावरूप संक्षेप से
SR No.524771
Book TitleJain Vidya 26
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2013
Total Pages100
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size6 MB
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