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________________ जैनविद्या 26 अर्थात् हे भव्य जीवो! तुम इस भगवान जिनेन्द्र द्वारा कहे गए सम्यग्दर्शनरूपी रत्न को भावपूर्वक धारण करो। यह सम्यग्दर्शनरूपी रत्न सभी रत्नों में श्रेष्ठ है तथा यह मोक्षमहल की प्रथम सीढ़ी है। इसी प्रकार का आशय आचार्य समन्तभद्र भी रत्नकरण्ड श्रावकाचार में प्रकट करते हैं। यथा - दर्शनं ज्ञानचारित्रात् साधिमानमुपाश्नुते । दर्शनं कर्णधारं तन्मोक्षमार्गे प्रचक्षते।।31।। अर्थात् ज्ञान और चारित्र की अपेक्षा सम्यग्दर्शन श्रेष्ठता को प्राप्त है, अतः उसे मोक्षमार्ग का कर्णधार (खेवटिया अर्थात् नाव चलानेवाला) कहते हैं। अर्थात् सम्यग्र्दशन ही संसाररूपी सागर से पार लगानेवाला है। - इससे यह स्पष्ट होता है कि वे सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को गौण कर रहे हैं तथा यह बतलाने का प्रयत्न कर रहे हैं कि उनका भी आधार सम्यग्दर्शन है। आगे उन्होंने स्पष्ट कहा है कि काम तो तभी बनेगा जब ये चार चीजें होंगी - दसणणाणचरित्ते-तवविणये णिच्चकाल सुपसत्था। एदे दु वंदणीया जे गुणवादी गुणधराणं ।।23।। णाणेण दंसणेण य तवेण चरियेण संजमगुणेण। चउहिं पिसमाजोगे मोक्खो जिणसासणे दिट्ठो।।30।। णाणं णरस्स सारो सारो वि णरस्स होइ सम्मत्तं। सम्मत्ताओ चरणं चरणाओ होइ णिव्वाणं।।31।। णाणम्मि देसणम्मि य तवेण चरिएण सम्मसहिएण। चउण्हं वि समाजोगे सिद्धा जीवा ण संदेहो।।32।। - दर्शन-ज्ञान-चारित्र, तप तथा विनय इनमें जो भले प्रकार स्थित हैं वे प्रशस्त हैं, सराहने योग्य हैं, गणधर आचार्य भी उनका गुणानुवाद करते हैं अतः वे वन्दने योग्य हैं।23। - ज्ञान-दर्शन-तप और चारित्र इन चारों का समायोग होने पर जो संयम गुण हो उससे जिनशासन में मोक्ष होना कहा है।30॥ - मनुष्य के लिए ज्ञान सार है क्योंकि ज्ञान से सब हेय-उपादेय जाने जाते हैं, फिर
SR No.524771
Book TitleJain Vidya 26
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2013
Total Pages100
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size6 MB
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