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________________ जैनविद्या 26 59 - वन्दना के प्रसंग में आचार्य का कथन है कि असंयमी तो अवन्दनीय है ही किन्तु भाव संयम से रहित बाह्य नग्न रूपधारी भी वन्दनीय नहीं है क्योंकि दोनों असंयमी हैं। असंजदं ण वंदे वत्थविहीणोवि तो ण वंदिज्ज। दोणि वि होंति समाणा एगो वि ण संजदो होदि।।26।। आचार्य ने लिखा है कि देह-कुल-जाति वन्दनीय नहीं है। वन्दनीय गुण होते हैं। गुणहीन की कौन वन्दना करता है? गुणों के बिना न मुनि होता है और न श्रावक होता है। ण वि देहो वंदिज्जइ ण वि य कुलो ण वि य जाइसंजुत्तो। को वंदमि गुणहीणो ण हुसवणो णेय सावओ होइ।।27।। आचार्य ने लिखा है कि वे तपस्वी साधुओं की, उनके शील की, उनके गुणों की, ब्रह्मचर्य की और मुक्ति गमन की सम्यक्त्व सहित शुद्धभाव से वन्दना करते हैं। यही नहीं चौंसठ चमर सहित, चौंतीस अतिशयों से युक्त, प्राणियों के हितैषी और कर्मक्षय के कारण परमदेव को भी उन्होंने वन्दना के योग्य माना है (28-29)। मोक्ष के लिए ज्ञान, दर्शन, तप और चारित्र - इन चार गुणों का समागम अपेक्षित कहा है (30)। . दर्शनपाहुड की निम्न गाथा ध्यातव्य है - णाणं णरस्स सारो सारो वि णरस्स होइ सम्मत्तं। सम्मत्ताओ चरणं चरणाओ होइ णिव्वाणं।।31।। आचार्य ने मनुष्य के लिए जगत में सार स्वरूप ज्ञान बताया है तथा ज्ञान में भी अधिक सार सम्यग्दर्शन में कहा है। सम्यग्दर्शन सम्यकचारित्र का मूल है। यह सम्यक्चारित्र ही निर्वाण प्राप्त कराता है। उन्होंने कहा - जो जीव सिद्ध हुए हैं वे ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व सहित तप और चारित्र के समागम से हुए हैं (32)। सम्यग्दर्शन रूपी रत्न जीव-कल्याण की परम्परा के कारण लोक में देव ही नहीं दानवों के द्वारा भी पूजा जाता है (33)। . कर्मों का क्षय बारह प्रकार के तपों से होना कहा है। विधिपूर्वक कर्मों का क्षय कर जो देह व्युत्सर्ग करते हैं अर्थात निर्ममता से शरीर त्यागते हैं वे सर्वोत्कृष्ट मोक्ष को प्राप्त करते हैं (36)।
SR No.524771
Book TitleJain Vidya 26
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2013
Total Pages100
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size6 MB
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