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________________ जैन विद्या 26 जीवादी सद्दहणं सम्मत्तं जिणवरेहिं पण्णत्तं । ववहारा णिच्छयदो अप्पाणं हवइ सम्मत्तं । । 201 प्रायः लोगों के मुख से ऐसा सुना जाता है कि जैन दर्शन में प्रतिपादित साधनापद्धति बहुत ही कठिन है, इसका हर कोई पालन नहीं कर सकता, लेकिन आचार्य कुन्दकुन्द ने इसका बड़ा ही सरल समाधान प्रस्तुत किया है। यथा - जं सक्कड़ तं कीरइ जं च ण सक्केइ तं च सद्दहणं । केवलिजिणेहिं भणियं सद्दहमाणस्स सम्मत्तं । । 22।। 55 - देखिए कितना अच्छा जवाब है आचार्य कुन्दकुन्द का जो काम तुम करने में समर्थ हो उसको करो तथा जो काम तुम नहीं कर सकते हो उस पर केवल श्रद्धा करो। केवलज्ञानी जिनेन्द्र भगवान ने श्रद्धान करनेवाले पुरुष को सम्यक्त्व कहा है। इसी प्रकार का भाव कविवर द्यानतराय जी ने भी व्यक्त किया है - शक्ति बिना सरधा धरे । कीजे शक्ति प्रमान, द्यानत सरधावान, अजर अमर पद भोगवे ॥ 7 ॥ उपरिलिखित गाथा का चिन्तन करने से ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने जैसे सभी के लिए मोक्ष के द्वार को खोल दिया हो। तथा जैसे आचार्य कह रहे हों कि तुम एक बार आओ तो सही, कदम तो बढ़ाओ । एक बात और दर्शनपाहुड में यह बतलायी गई है जो प्रायः अन्यत्र दिखाई नहीं देती कि जो व्यक्ति स्वयं सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं, ज्ञान से भ्रष्ट हैं और चारित्र से भ्रष्ट हैं वे भ्रष्टों में विशिष्ट भ्रष्ट हैं, अर्थात् अत्यन्त भ्रष्ट हैं तथा वे अन्य व्यक्तियों को भी भ्रष्ट कर देते हैं जे दंसणेसु भट्ठा णाणे भट्ठा चरित्तभट्ठा य। दे भट्ट विभट्ठा से पि जणं विणासंति ॥ 8॥ सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट जीव दूसरों को भी भ्रष्ट कर देता है - यह बड़ी दुःखद बात है। अंत में हम कह सकते हैं कि आध्यात्मिक क्षेत्र में आचार्य कुन्दकुन्द का ''दर्शनपाहुड' एक बहुत ही क्रान्तिकारी रचना है। इस जैसी दूसरी रचना समूचे जैनवाङ्मय
SR No.524771
Book TitleJain Vidya 26
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2013
Total Pages100
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size6 MB
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