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________________ 44 जैनविद्या 26 धम्मो दयाविसुद्धो धम्मो दयाविसुद्धो पव्वज्जा सव्वसंगपरिचत्ता। देवो ववगयमोहो उदययरो भव्वजीवाणं ।।25।। बो.पा. जिंदाए य पसंसाए दुक्खे य सुहएसु य। सत्तूणं चेव बंधूणं चारित्तं समभावदो ॥2॥ मो.पा. उत्थरइ जा ण जर ओ रोयग्गी जा ण डहइ देहउडिं। इंदिय बलं त वियलइ ताव तुमं कुणहि अप्पहियं ।।132।। भा.पा. आचार्य कुन्दकुन्द अष्टपाहुड धर्म (चारित्र वह है जो) दया से शुद्ध किया हुआ है, संन्यास (वह है जो) समस्त आसक्ति से रहित होता है; देव (वह है जिसके द्वारा) मूर्छा नष्ट की गई (है, और जो) भव्य जीवों (समता भाव की प्राप्ति के इच्छुक जीवों) का उत्थान करनेवाला होता है। - निंदा और प्रशंसा में, दुःखों और सुखों में, शत्रुओं और मित्रों में समभाव (रखने) से (ही) चारित्र होता है। हे मनुष्य! जब तक (तुझे) वृद्धावस्था नहीं पकड़ती है, जब तक रोगरूपी अग्नि (तेरी) देहरूपी कुटिया को नहीं जलाती है, (जब तक) इन्द्रियों की शक्ति क्षीण नहीं होती तब तक तू आत्महित/अपना हित कर ले। अनु. - डॉ. कमलचंद सोगाणी
SR No.524771
Book TitleJain Vidya 26
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2013
Total Pages100
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size6 MB
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