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________________ जैन विद्या 26 आचार्य कुन्दकुन्द ने ‘अष्टपाहुडों' का प्रणयन किया जिसमें दंसणपाहुड, चारित्तपाहुड, सुत्तपाहुड, बोधपाहुड, भावपाहुड, मोक्षपाहुड, लिंगपाहुड, शीलपाहुड ग्रन्थ आते हैं। 64 आचार्य कुन्दकुन्द के सभी ग्रन्थ पाहुड कहे जाते हैं। 'पाहुड' अर्थात् 'प्राभृत' जिसका अर्थ होता है 'भेंट' या 'उपहार'। आचार्य जिनसेन ने समयसार की तात्पर्यवृत्ति टीका में कहा है कि जैसे देवदत्त नाम का कोई व्यक्ति राजा का दर्शन करने के लिए कोई ' सारभूत वस्तु' राजा को देता है तो उसे प्राभृत या 'भेंट' कहते हैं, उसी प्रकार परमात्मा आराधक पुरुष के लिए निर्दोष 'परमात्मा रूपी राजा' का दर्शन कराने के लिए यह शास्त्र भी 'प्राभृत' अर्थात् भेंट हैं। 2 'मोक्षपाहुड' में एक सौ छह गाथायें हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने स्वयं यह लिखा है कि इस ग्रन्थ में मैं परम योगियों के लिए परमपद रूप परमात्मा का कथन करूँगा - वोच्छं परमप्पाणं परमपयं परमजोईणं ।।2।। - जिसको जानकर 'योगी' अव्याबाध, अनन्त, अनुपम निर्वाण को प्राप्त होता है . जाणिऊण जोई जोअत्थो जोइऊण अणवरयं । अव्वावाहमणतं अणोवमं हवइ णिव्वाणं ॥3॥ इस ग्रन्थ को देखकर तथा इस ग्रन्थ में प्रतिपादित विषय गाथाओं में साक्षात् 'योग', 'योगी', 'ध्यान', 'ध्यानी' आदि शब्दों को देखकर डॉ. हीरालाल जैन ने लिखा है कि इस ग्रन्थ का नाम 'मोक्षपाहुड' की जगह 'योगपाहुड' होना चाहिए था । मोक्षपाहुड में आचार्य कहते हैं कि मिथ्यात्व, अज्ञान, पाप और पुण्य को मनवचन-कायरूप त्रिविध योगों से जोड़कर जो योगी मौनव्रत से ध्यानस्थ होता है वही आत्मा को द्योतित करता है, प्रकाशित करता है । मिच्छत्तं अण्णाणं पावं पुण्णं चएति तिविहेण । मोणव्वण जोई जोयत्थो जोयए अप्पा | | 28।। योगी मौन क्यों रहता है? इसका बहुत आध्यात्मिक समाधान अगली गाथा में कहा
SR No.524771
Book TitleJain Vidya 26
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2013
Total Pages100
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size6 MB
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