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________________ जैनविद्या 26 65 जं मया दिस्सदे रूवं तं ण जाणादि सव्वहा। जाणगं दिस्सदे गंतं तम्हा जंपेमि केण हं।।29।। अर्थात् जो रूप मेरे द्वारा देखा जाता है वह बिल्कुल नहीं जानता और जो जानता है वह दिखाई नहीं देता तब मैं किसके साथ बात करूँ? (इसलिए मेरे मौन है।) इसके अलावा योगी का एक विलक्षण लक्षण भी बताते हैं - जो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सकज्जम्मि। जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणो कज्जे।।31॥ अर्थात् जो योगी व्यवहार में सोता है वह आत्मकार्य में जागता है और जो व्यवहार में जागता है वह आत्मकार्य में सोता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जो मुनि लौकिक कार्यों में उदासीन रहता है वह कर्मक्षयरूपी आत्मकार्य में जागता है और जो लौकिक कार्यों में जागरूक है वह आत्मकार्य में उदासीन रहता है।' आत्मध्यान में कैसा योगी लग पाता है उसके लिए कहते हैं - देव गुरुम्मिय भत्तो साहम्मिय संजदेसु अणुरत्तो। सम्मत्तमुव्वहंतो झाणरओ होइ जोई सो ।।52।। अर्थात् - जो देव और गुरु का भक्त है, सहधर्मी भाई तथा संयमी जीवों का अनुरागी है तथा सम्यग्दर्शन को आदरपूर्वक धारण करता है ऐसा योगी ही ध्यान में तत्पर होता है। आगे भी कहते हैं कि जब तक मनुष्य विषयों में रमण करता है तब तक आत्मा को नहीं जान पाता। विषयों से विरक्तचित्त योगी ही आत्मा को पहचानता है। ताम ण णज्जइ अप्पा विसएसु णरो पवट्टए जाम। विसए विरत्तचित्तो जोई जाणेइ अप्पाणं।।66।। इस प्रकार पहली शताब्दी में रचे गये इस ग्रन्थ में अनेक प्रेरक और रोचक गाथायें हैं जो सीधे योगी को लक्ष्य करके लिखी गयी हैं। यही कारण है कि जैनाचार्य परम्परा में हम आचार्य कुन्दकुन्द को जैन योग का प्रतिष्ठापक आचार्य मानते हैं। 1. अध्यात्मयोगशुद्धादान उपस्थितः स्थितात्मा - सूत्रकृतांग, 16/3
SR No.524771
Book TitleJain Vidya 26
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2013
Total Pages100
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size6 MB
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