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जैनविद्या 26
उत्तरोत्तर सीमातीत शिथिलाचार बढ़ा है; तथापि आज जो कुछ भी मर्यादा दिखाई देती है, उसमें अष्टपाहुड का सर्वाधिक योगदान है।
अष्टपाहुड एक ऐसा अंकुश है जो शिथिलाचार के मदोन्मत्त गजराज को बहुत कुछ काबू में रखता है, सर्वविनाश नहीं करने देता। यदि अष्टपाहुड नहीं होता तो आज हम कहाँ पहुँच गये होते - इसकी कल्पना करना भी कष्टकर प्रतीत होता है।
अतः यह कहने में रंचमात्र भी संकोच नहीं करना चाहिए कि अष्टपाहुड की उपयोगिता निरन्तर रही है और पंचम काल के अन्त तक बनी रहेगी।
वीतरागी जिनधर्म की निर्मल धारा के अविरल प्रवाह के अभिलाषी आत्मार्थीजनों को स्वयं तो इस कृति का गहराई से अध्ययन करना ही चाहिए, इसका समुचित प्रचार-प्रसार भी करना चाहिए, जिससे सामान्यजन भी शिथिलाचार के विरुद्ध सावधान हो सकें। इसमें प्रतिपादित विषयवस्तु संक्षेप में इस प्रकार है - (1) दर्शनपाहुड
छत्तीस गाथाओं में निबद्ध इस पाहुड में मंगलाचरणोपरान्त आरम्भ से ही सम्यग्दर्शन की महिमा बताते हए आचार्यदेव लिखते हैं - जिनवरदेव ने कहा है कि धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है; अतः जो जीव सम्यग्दर्शन से रहित हैं, वे वंदनीय नहीं हैं (2)। भले ही वे अनेक शास्त्रों के पाठी हों, उग्र तप करते हों, करोड़ों वर्ष तक तप करते रहें; तथापि जो सम्यग्दर्शन से रहित हैं, उन्हें आत्मोपलब्धि नहीं होती, निर्वाण की प्राप्ति नहीं होती, आराधना से रहित होने के कारण वे संसार में ही भटकते रहते हैं (4)। किन्तु जिनके हृदय में सम्यक्त्वरूपी जल का प्रवाह निरन्तर बहता रहता है, उन्हें कर्मरूपी रज का आवरण नहीं लगता, उनके पूर्वबद्ध कर्मों का भी नाश हो जाता है (7)।
__ जो जीव सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तीनों से ही भ्रष्ट हैं, वे तो भ्रष्टों में भी भ्रष्ट हैं; वे स्वयं तो नाश को प्राप्त होते ही हैं, अपने अनुयायियों को भी नष्ट करते हैं। ऐसे लोग अपने दोषों को छुपाने के लिए धर्मात्माओं को दोषी बताते रहते हैं (8)।
जिस प्रकार मूल के नष्ट हो जाने पर उसके परिवार - स्कंध, शाखा, पत्र, पुष्प, फल की वृद्धि नहीं होती; उसी प्रकार सम्यग्दर्शनरूपी मूल के नष्ट होने पर संयम आदि की वृद्धि नहीं होती(10)। यही कारण है कि जिनेन्द्र भगवान ने सम्यग्दर्शन को धर्म का मूल कहा है (11)।