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________________ जैनविद्या 26 ___37 न ही देह वन्दनीय है, न ही कुल, और न जाति ही वन्दनीय है। गुणहीन की वन्दना कौन करता है? क्योंकि गुणों के बिना न कोई श्रमण होता है और न ही श्रावक। जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप विनय रूप चार प्रकार की आराधना में लीन रहते हैं, जो इन गुणों के धारक हैं, वे ही वन्दनीय हैं। सम्यग्दर्शन से ही ज्ञान और चारित्र सम्यक् होते हैं अतः दर्शन ही सार है। सम्यक्त्वसहित ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप से ही निर्वाण प्राप्त होता है। सूत्र पाहुड - 27 गाथाओं में निबद्ध इस पाहुड में सर्वप्रथम सूत्र के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि - अहँतों द्वारा भाषित, गणधरों द्वारा गूंथे गये तथा निग्रंथ आचार्यों द्वारा शब्द और अर्थमय सूत्रों के अनुसार स्वयं अपने जीवन को साधा है तथा उनके अनुसार चलने की प्रेरणा दी है, उसी मार्ग पर चलनेवाला परमार्थ को समझता है और संसार में भटकता नहीं। जिस प्रकार सूत्र (धागा) सहित सूई खोती नहीं, उसी प्रकार श्रुत-शास्त्र का अभ्यासी ज्ञाता श्रमण व श्रावक संसार में भ्रमित नहीं होते - सुत्तम्मि जाणमाणो भवस्स भवणासणं च सो कुणदि। सूई जहा असुत्ता णासदि सुत्ते सहा णो वि।।3।। जो जिनोक्त सूत्रों में प्रतिपादित पारमार्थिक और व्यावहारिक सत्य को जानते हैं, वे कर्म-मल का नाश करते हैं और सच्चे सुख को पाते हैं। जिनेन्द्र द्वारा कथित सूत्रों से जीवाजीवादि तत्त्वों का अर्थ तथा हेय व उपादेय का ज्ञान होता है। क्योंकि जिनभाषित सूत्र व्यवहार और परमार्थ रूप है। उन पर चलनेवाला ही शाश्वत सुख पाता है। जो इन सूत्रों से अपरिचित हैं और भ्रष्ट हैं वे मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते। भले ही वह संघपति हों, सिंहवृत्ति हों। आत्म-ज्ञान ही श्रेष्ठ ज्ञान है। जो पुरुष अपनी आत्मा को नहीं जानता, आत्म-भावना नहीं करता है, भले ही दान, पूजा, तपश्चरण करे सिद्धि को प्राप्त नहीं कर सकता। आत्मध्यान ही मोक्ष का कारण है। अह पुण अप्पा णिच्छदि धम्माई करेइ णिरव सेसाई। तह वि ण पावदि सिद्धिं, संसारत्थो पुणो भणिदो।।15।। इसलिए हे भव्य जीवो! मन-वचन-काय से शुद्ध-बुद्ध स्वभाववाले आत्म तत्त्व का श्रद्धान करो, उसी की रुचि करो, आत्मा को जानने का यत्न करो। एएण कारणेण य तं अप्पा सद्दहेह तिविहेण। जेण य लहेइ मोक्खं तं जाणिज्जइ पयत्तेण।।16।।
SR No.524771
Book TitleJain Vidya 26
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2013
Total Pages100
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size6 MB
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