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________________ 36 जैनविद्या 26 यहाँ प्रत्येक पाहुड में निहित जीवन मूल्य प्रस्तुत हैं - दर्शन पाहुड - अर्थात् सम्यग्दर्शन का जीवन में महत्त्व | आचार्यश्री कुन्दकुन्द देव ने सर्वप्रथम दर्शन पाहुड की 36 गाथाओं में जीवन में सम्यग्दर्शन का महत्त्व बताते हुए कहा है कि धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान और चारित्र वन्दनीय नहीं होते। सम्यग्दर्शन ही जन्म-मरण रोग-निवारण के लिए परम औषधि है। यह मोक्ष - महल का प्रथम सोपान है। जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं वे वास्तव में भ्रष्ट हैं, उन्हें मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती है - दंसण मूलो धम्मो ... दंसणहीणो ण वंदिज्जो ||2|| दंसण भट्टा भट्टा, दंसण भट्टस्स णत्थि णिव्वाणं ।।3।। बहुश्रुतज्ञ अथवा शास्त्रों के ज्ञाता होने पर भी जो सम्यग्दर्शन से हीन हैं उन्हें कभी मुक्ति नहीं मिलती। सम्यग्दर्शन रहित तप भी निरर्थक है। सम्मत्तरयणभट्ठा जाणंता बहुविहाई सत्थाई । । 4 । । ण लहंति बोहिलाहं, अवि वाससहस्सकोडीहिं ||5|| सम्यक्त्वरूपी जल-प्रवाह में जिसका हृदय बहता रहता है उसके अनादि काल के कर्मबन्धन का आवरण नष्ट हो जाता है - सम्मत्तसलिलपवहो णिच्चं हियए पवट्टए जस्स । कम्मं वालुयवरणं बंधुच्चिय णासए तस्स ।। 7 ।। आचार्य कहते हैं कि श्रद्धान करनेवाला ही सम्यग्दृष्टि होता है। जं सक्कड़ तं कीरइ जं च ण सक्केइ तं य सद्दहणं । केवलिजिणेहिं भणियं सद्दहमाणस्स सम्मत्तं ।। 22।। जितनी शक्ति हो उतना ही चरित्र धारण करना चाहिये । यदि शक्ति नहीं है तो श्रद्धान करना चाहिये, क्योंकि श्रद्धान करनेवाला ही सम्यक्त्वी होता है । - ऐसा केवली भगवान ने कहा है। जैन धर्म में निर्ग्रन्थ मुनि, ग्यारह प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावक (क्षुल्लक) और आर्यिका ये तीन पद ही उत्कृष्ट माने गये हैं। ये ही वंदनीय हैं। असंयमी की कभी वन्दना नहीं करनी चाहिए। जो वस्त्ररहित होने पर भी भावसंयमी नहीं है वह भी वन्दनीय नहीं है। वि देहो वंदिज्जइ णवि य कुलो णवि य जाइसंजुत्तो । को वंदमिगुणहीणो ण हुसवणो णेय सावओ हो । 27 ।।
SR No.524771
Book TitleJain Vidya 26
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2013
Total Pages100
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size6 MB
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