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________________ जैनविद्या 26 आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार जिनचिह्न धारण कर उक्त अनुपयुक्त क्रियाओं को करनेवाले साधु भले ही बहुत सारे शास्त्रों के ज्ञाता हों और भावचिह्न साधुओं के साथ रहते हों तो भी वे भाव से नष्ट ही हैं और साधु नहीं हैं (लिंगपाहड 19)। अन्त में आचार्य कहते हैं कि जो साधु गणधरादि द्वारा उपदिष्ट वास्तविक धर्म को यत्नपूर्वक धारण करते हैं वे निश्चित ही सर्वदुःख दूर कर मोक्ष को प्राप्त करते हैं (लिंगपाहुड 22)। उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जिनचिह्न धारण करनेवाले साधु यदि अहंकारी होकर मोक्षमार्ग की आगम के विपरीत व्याख्या करते हैं, या व्यक्तिगत विश्वासों के अनुसार उसका असत्य निरूपण करते हैं, षट् रस एवं भोजन में आसक्ति रखते हैं; छल, कपट, प्रलोभन देकर धार्मिक क्रियाओं की आड़ में अविहित (निषिद्ध, अनुचित) क्रियाएँ करते हैं; ज्योतिषमन्त्र-तन्त्र एवं वास्तु जैसे लौकिक कार्यों में रुचि लेते हैं; रुपया, मकान, भोग-उपभोग की सामग्री, वाहन आदि परिग्रह की कामना करते हैं; हिंसा, मारपीट, चोरी, झूठ, अब्रह्म आदि पाप कार्य करते-कराते हैं; धर्म के नाम पर हिंसा-कषाय-पोषक एवं निन्द्य ग्रन्थों का अभ्यास एवं रचना करते हैं; जिनदेव, जिनगुरु एवं जिनशास्त्रों की अवज्ञा-अविनय करते हैं, असंयमीरागी देवी-देवताओं को पूजते हैं और शरीर-क्रिया, भोजन एवं इन्द्रिय-पोषण आदि में मग्न रहते हैं, वे पंथ-भेद को फैलाते हैं, यश के लिए दौड़ते-भागते हैं, धर्म के नाम पर धन-संग्रह करते-करवाते हैं, वे वास्तव में जिनमार्गी श्रमण न होकर उन्मार्गी, भले ही फिर बाह्य में वे कितनी ही कठोर शारीरिक तपस्या क्यों न करते हों? आत्मज्ञान के बिना कितना ही कठोर तप किया जाए उससे कर्मों की निर्जरा नहीं होती। बी-369, ओ.पी.एम. कॉलोनी अमलाई पेपर मिल जिला- शहडोल (म.प्र.) 484117
SR No.524771
Book TitleJain Vidya 26
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2013
Total Pages100
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size6 MB
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