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जैन विद्या 26
मोक्षमार्ग और जिनसूत्र
आचार्य कुन्दकुन्द ने 'सूत्रपाहुड' में कहा है कि जिनमार्ग में वीतरागता की प्राप्ति हेतु जिनसूत्रों को अर्थात् आगम-अध्यात्म में प्रतिपादित जीवादि पदार्थों, हेय-उपादेय आदि को जाननेवाला साधु ही सम्यग्दृष्टि है (सूत्रपाहुड 5)। जिस प्रकार सूत्र - सहित सुई गुमती नहीं है, उसी प्रकार जिनसूत्रों का ज्ञाता साधु कभी पथभ्रष्ट नहीं होता (सूत्रपाहुड 3-4)। उनके अनुसार जिनसूत्र से भ्रष्ट रुद्र जैसा ऋद्धिवान तपस्वी भी मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सका (सूत्रपाहुड 8)। जिनसूत्रों का जानकार व्यक्ति कभी भी अपने अहंकार की तुष्टि हेतु आत्मस्वरूप, सप्त तत्त्व, त्रिरत्नरूप मोक्षमार्ग साध्य-साधन आदि की मनगढ़न्त या मनमानी व्याख्या नहीं करता। आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार जिनसूत्रों की मनमानी व्याख्या करनेवाला साधु श्रावक मिथ्यादृष्टि होता है (सूत्रपाहुड 7)।
जिन - चिह्नधारी सूत्र और जिनेतर - चिह्नी साधु
राग गुण के कारण लोक में जिनचिह्न की श्रेष्ठता, विशिष्टता एवं महिमा बनी रहे और वह पाप का कारण न बने इसके प्रति आचार्य कुन्दकुन्द जागरूक थे। जिनचिह्नधारी साधु उन्मार्गी होकर लोक-उपहास का कारण बने, यह उन्हें इष्ट नहीं था; अतः एक ओर जहाँ उन्होंने 'बोध पाहुड' में वीतराग गुणयुक्त जिनचिह्नी साधुओं को जिन आयतन, चैत्यगृह, जिनप्रतिमा, दर्शन, जिनबिम्ब, जिनमुद्रा, ज्ञान, जिनदेव, जिनतीर्थ, अरहंत एवं प्रव्रज्या जैसी उपाधियों से महिमा मण्डित किया है (बोध पाहुड 3-4 ); वहीं दूसरी ओर जिनभेष का दुरुपयोग रोकने हेतु 'लिंगपाहुड' में जिन चिह्नधारी भ्रष्ट साधुओं की निन्दा करते हुए उन्हें पशुतुल्य, पापरूप एवं निगोदगामी बताया है।
द्रव्यचिह्न साधु
द्रव्यचिह्नी साधु आत्माज्ञान-विहीन होते हैं; किन्तु वे साधुओं के बाह्य नियमों का निरतिचार पालन करते हैं। उनके पास भी तृण मात्र परिग्रह नहीं होता। वे मन एवं इन्द्रिय संयम से युक्त होते हैं। वैसे द्रव्यचिह्नी साधु एवं भावचिह्नी साधु में भेद करना दुष्कर होता है। यह केवलज्ञान-गम्य है। इन साधुओं के अतिरिक्त जिनचिह्न धारण कर कुक्रिया में मग्न रहनेवाले जिनेतर-चिह्नी साधुओं का वर्णन भी आचार्यदेव ने (लिंगपाहुड) में किया है। ऐसे साधु स्वच्छन्द होकर स्त्री-संसर्ग, विषय-कषायों की पुष्टि, शरीर-संस्कार, गृहस्थोचित कार्य एवं परिग्रह के प्रति ममत्व रखते हुए लौकिक कार्यों में रुचिवान होते हैं।