Book Title: Jain Vidya 26
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 89
________________ जैनविद्या 26 जाता है। 42 संयमियों के मध्य रहता हुआ तथा बहुत ज्ञानवान होता हुआ भी जो भाव ( वीतरागता ) से विनष्ट है, 43 वह बाल स्वभावी है। 44 78 आचार्य बट्टकेर ने मूलाचार में पाँच प्रकार के पापश्रमण बतलाये हैं - (1) पार्श्वस्थ (2) कुशील (3) संसक्त (असंयतों में आसक्त), अवसन्न (अल्प संज्ञक ) और (5) मृगचरित्र।” इन पाप श्रमणों को मूलाचारकार ने घोड़े की लीद की तरह निस्सार तथा बगुले की तरह कुत्सित चेष्टा करने वाला कहा है, जो अन्दर से तो कुटिल है और बाहर से सुन्दरसरल लगता है (10.73)। मूलाचार के पिण्डशुद्धि अधिकार में श्रमण के आहार सम्बन्धी को दर्शाया गया है। आहार में दोष लगानेवाले को पाप श्रमण कहा गया है। इन पापश्रमणों की जिनागम में निन्दा की गई है। ये पाँचों इन्द्रिय व कषाय के गुरुत्व से सिद्धान्तानुसार आचरण करनेवाले मुनियों के प्रतिपक्षी हैं (306)। ये पाँचों ही जिनधर्म - बाह्य हैं। 46 आचार्य कुन्दकुन्द ने अष्टपाहुड में श्रमण के यथार्थ स्वरूप का दिग्दर्शन कराया है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि सर्वज्ञ प्रणीत आगम के अनुसार जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान करनेवाला तथा श्रमणचर्या का निर्दोष पालन करनेवाला ही यथार्थ / योग्य श्रमण है। ये श्रमण ही वन्दनीय हैं। इसके विपरीत मुनिपने से हीन श्रमणाभासी है। इन्हें ही 'पाप श्रमण' की संज्ञा दी गई है। ये आचरणहीन होने से अयथार्थ श्रमण / श्रमणाभासी हैं और अवंदनीय हैं। श्रमणाभासी के आचरण से धर्म की अप्रभावना होती है। इसीलिए आचार्य कुन्दकुन्द ने श्रमण को यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करने हेतु सन्देश दिया है। अनेक लौकिक, पाप क्रियाओं में लगे श्रमण को चेतावनी देकर उसकी नग्नता को कठोर शब्दों में धिक्कारा है और पशुतुल्य कहा है क्योंकि मुनिपने से हीन श्रमण आत्महित और परहित का विघातक होता है। इस धिक्कार से श्रमण सजगसावधान होकर यत्नाचारपूर्वक मूलगुणों का पालन करे और जिनलिंग की पूज्यता पर कोई आँच न आये इसका भरसक प्रयत्न कट्टर अनुशासक आचार्य कुन्दकुन्द ने किया है। समाज भी श्रमणाभासी के प्रति सजग होकर कार्य करे जिससे धर्म और समाज की मर्यादा सुरक्षित रह सके। 1. अ. - सोह - गय बसहमिय पसु मारूद सुरूवहिमंदरिंदु मणी । खिदी उरगंबर सरिसा परमपय विमग्गयासाहु।। धवला, 1/1, 1, 1 / गाथा 33 /51 ब. - मूलाचार परिशीलन, सम्पादक डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन भारती, प्रकाशक : आचार्य ज्ञानसागर वागर्थ विमर्श केन्द्र, ब्यावर (राज.), वर्ष 2012, पृष्ठ 74

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