Book Title: Jain Vidya 26
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 88
________________ जैनविद्या 26 उपकरण और बसतिका का बिना शोधन किये ही ग्रहण करते हैं व मूल-स्थान प्रायश्चित्त को प्राप्त होते हैं और संसार में मुनिपने से हीन हैं - पिंडोवधिसेज्जाओ अविसोधिय जो य भुंजदे समणो। मूलट्ठाणं पत्तो भुवणेसु हवे समणपोल्लो।।918।। मूलाचार मुनिपने से हीन श्रमणों को ‘पाप श्रमण' संज्ञा दी गई है। अर्थात् जो श्रमण साधना नहीं कर सकता, वह पाप श्रमण' है। श्रीमद् कुन्दकुन्दाचार्य ने लिंग पाहड में ‘पाप श्रमण' की कुछ पापक्रियाओं को निम्न प्रकार बतलाया है - (1) नाचना, गाना, बाजा बजाना4 (2) आर्तध्यान करना (3) कलह, वादविवाद, घमण्ड करना16 (4) परिग्रह-संग्रहण व रक्षण करना7 (5) जुआ खेलना, अब्रह्मचारी होना, मायाचारी करना (6) बिना दी हुई वस्तु ग्रहण करना (7) स्त्रियों में निरन्तर राग करना20 (8) परोक्ष में निर्दोष व्यक्तियों पर दोषारोपण कर निन्दा करना (9) रत्नत्रय का पालन न करना22 (10) दूसरों के विवाह सम्बन्ध कराना3 (11) दर्शन, ज्ञान, चारित्र, संयम, तप, नियम तथा नित्यकर्मों में प्रवृत्त होते हुए भी दूसरे जीव को पीड़ा पहुँचाना24 (12) कृषि तथा व्यापार द्वारा जीवघात करना (13) चोरों और मिथ्यावादियों के मध्य युद्ध एवं विवाद कराना26 (14) तीव्रकर्म (हिंसादि क्रूरकर्म) करना7 (15) यन्त्र (चौपड़) आदि से क्रीड़ा करना28 (16) कंदी आदि कुत्सित भावनायें करना29 (17) भोजन में रस- लोलुपी होना (18) आहार के लिए दौड़ना, कलह करना व ईर्ष्या करना" (19) ईर्या समिति धारण करके भी चलते समय कभी उछलना, कभी दौड़ना, कभी पृथ्वी को खोदना (20) किसी के बंधन में पड़कर धान कूटना, पृथ्वी खोदना, वृक्षों का छेदन करना (21) गृहस्थों से अति स्नेह करना अर्थात् अपनी मर्यादा भूलकर उनके घर जाना और सुख-दुःख में आत्मीयता दिखाना4, आदि। इस प्रकार लिंग पाहुड में ‘पाप श्रमण' की कुछ क्रियाओं को बतलाया गया है। इसी तरह की अन्य पापाचार की क्रियाओं का समावेश कर लेना चाहिए। वस्तुतः ये क्रियाएँ महाव्रतों की भंजक हैं। इसीलिए आचार्य कुन्दकुन्द ने द्रव्यमुनि व भावमुनि होने का फल बतलाकर भावलिंगी मुनि होने की प्रेरणा दी है। लिंग पाहुड में बतलाया है - जो साधु आचार, विनय, दर्शन, ज्ञानादि से रहित है वह तिर्यंच है, साधु नहीं। चोर है जिनमार्गी श्रमण नहीं है। पापकर्मों से उपहित है, जिनलिंग भंजक है", पशु है, पार्श्वस्थ से भी निकृष्ट है। ऐसा साधु संसाररूपी जंगल में भटकता रहता है। अनन्त संसारी होता है।' दुर्गतिरूप नरकादि में

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