________________
जैनविद्या 26
हुए जो साधु वैराग्य में तत्पर होता है, परद्रव्य से परांगमुख रहता है, संसारसुख से विरक्त रहता है, वह स्वकीय शुद्ध सुख में अनुरक्त साधु होता है। ऐसा साधु सच्चा साधु है। सच्चे साधु ही वन्दनीय हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने दर्शनपाहुड में कहा है - मैं उन मुनियों को नमस्कार करता हूँ जो तप से सहित है, साथ ही उनके शील को, गुण को, ब्रह्मचर्य को और मुक्ति प्राप्ति को भी सम्यक्त्व तथा शुद्ध भाव से नमस्कार करता हूँ -
वंदमि तवसावण्णा सीलं च गुणं च बंभचेरं च।
सिद्धिगमणं च तेसिं सम्मत्तेण सुद्धभावेण।।28।। अष्टपाहुडकार ने इस प्रकार वन्दनीय साधु के गुण बतलाये हैं। सूत्रपाहुड में उन्होंने निर्दिष्ट किया है - जो मुनि संयम से सहित है तथा आरम्भ-परिग्रह से विरत है, बावीस परीषह सहन करते हैं, सैकड़ों शक्तियों से सहित हैं, कर्मों के क्षय तथा निर्जरा करने में कुशल हैं, ऐसे श्रमण वन्दना करने योग्य हैं।'
इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द ने श्रमण की वन्दना के सम्बन्ध में प्रकाश डालते हुए उनकी योग्यता की कसौटी निर्धारित की है। वस्तुतः साधु को दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप तथा विनययुक्त होना चाहिए। इसके साथ ही श्रमण का प्रथमलिंग भावलिंग है। द्रव्यलिंग परमार्थ नहीं है। भाव के बिना द्रव्यलिंग परमार्थ की सिद्धि करने वाला नहीं है। गुण और दोषों का कारण भावलिंग ही है। लिंग पाहुड के प्रारम्भ में ही आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है धर्म से ही लिंग होता है, लिंगमात्र धारण करने से धर्म की प्राप्ति नहीं होती। इसलिए भाव को ही धर्म जानो।
उपर्युक्त गुणों से भिन्न जो वस्त्ररहित होकर भी असंयमी (भावसंयम रहित) तथा असंयत हो वह वन्दना के अयोग्य है।12 भले ही स्वस्थ-सुन्दर शरीर हो, उच्चकुल-उच्च जातिवाला हो पर संयम, रत्नत्रय गुणरहित साधु अवंदनीय है।13
जो श्रमण जिनाज्ञा का पालन या श्रद्धान नहीं करते वे श्रमण न होकर श्रमणाभासी
ण हवदि समणो त्ति मदो संजमतवसुत्तसंपजुत्तो वि। जदि सद्दहदि ण अत्थे आदपधाणे जिणक्खादे ।।264।। प्रवचनसार
श्रमण के द्वारा जो कार्य करने योग्य न हो, उन कार्यों को जो करता है वह श्रमणाभास है। श्रमणाभासी मुनिपने से हीन होते हैं। इनके विषय में कहा गया है कि जो श्रमण आहार,