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जैनविद्या 26
टीका तथा श्रुतसागर सूरि भट्टारक द्वारा लिंग पाहुड और शील पाहुड को छोड़कर शेष छह पाहुडों पर विद्वत्तापूर्ण टीका उपलब्ध है।*
ग्रन्थकार ने अष्टपाहुड के माध्यम से जैन दर्शन का हार्द - रत्नत्रय धर्म, श्रमणाचार, सच्चे श्रामण्य आदि विषयों की विस्तृत विवेचना की है। श्रमण को शिथिलाचार से बचने/ बचाने के लिए सजग/सावधान किया है जिससे वह सर्वज्ञदेव द्वारा प्रतिपादित आत्मकल्याण के विशुद्ध मार्ग पर अग्रसर हो अन्तिम मोक्ष पुरुषार्थ को प्राप्त कर सके। ग्रन्थकार ने शिथिलाचार के विरुद्ध आवाज उठाकर अपने शिष्यों के आचरण को अनुशासित किया है। इसमें शिथिलाचार के विरुद्ध सशक्त आदेश है, प्रेरक उपदेश है तथा मृदुल संबोधन भी है। वर्तमान में श्रमणों की आचार-विषयक जो मर्यादा दिखाई देती है वह आचार्य कुन्दकुन्द की ही देन है। .
अष्टपाहुड में श्रमण का स्वरूप मूलाचार या श्रमणाचार के ग्रन्थों में वर्णित स्वरूपवत् न होकर प्रकीर्णक रूप में यत्र-तत्र बिखरा हुआ है। जैसे चारित्रपाहुड में पंचमहाव्रत, पंचसमिति, तीन गुप्ति के स्वरूप; सूत्रपाहुड में पाणिपात्र में आहार ग्रहण करने; भावपाहुड में भावलिंग की प्रधानता से साधुस्वरूप तथा भाव विशुद्धि बनाये रखने का संदेश, परीषह-उपसर्ग सहने की प्रेरणा, अनुप्रेक्षा, विनय, ध्यान का निरूपण; मोक्षपाहुड में स्वद्रव्य ध्यान, सम्यक् चारित्र, समभाव चारित्र; शीलपाड में शील की श्रेष्ठता का विवेचन है। यहाँ श्रमण के स्वरूप, वंदनीय तथा अवंदनीय श्रमण कौन है? अवंदनीय होने के कारण, श्रमणाभास आदि विषयों पर विचार किया जा रहा है। श्रमण
प्राकृत भाषा के 'समण' का रूपान्तर है श्रमण। 'श्राम्यति आत्मानं तपोभिरिति श्रमणः' अर्थात् जो तपों से अपनी आत्मा को श्रमयुक्त करता है वह श्रमण है। 'श्राम्यति मोक्षमार्गे श्रमं विदधातीति श्रमणः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो मोक्षमार्ग में श्रम करता है वह श्रमण है। यहाँ श्रमण में आचार्य, उपाध्याय और साधु तीनों गर्भित हैं। आचार्य वीरसेन स्वामी ने साधु को पराक्रमी, स्वाभिमानी, भद्रप्रकृति, सरल, निरीह, गोचरी वृत्ति, निःसंग, तेजस्वी, गंभीर, अकंप, शान्तचित्त, प्रभायुक्त, सर्वबाधाजयी, अनियतवासी, निरालंबी, निर्लेप आदि गुणों से युक्त कहा है।' आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में पंचसमिति, पंचेन्द्रिय-विजय, त्रिगुप्तियुक्त, कषायजयी, दर्शन-ज्ञानपूर्ण, एकाग्रचित्त, समभावी को साधु कहा है। अष्टपाहुड
___ *वर्तमान में आचार्य श्री विद्यासागरजी संघस्थ मुनि श्री प्रणम्यसागर जी ने अष्टपाहुड के लिंगपाहुड तथा शीलपाहुड पर संस्कृत में नन्दिनी टीका लिखकर हिन्दी अनुवाद किया है। यह धर्मोदय साहित्य प्रकाशन, खुरई रोड, सागर से वर्ष 2008 में प्रकाशित है।