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जैनविद्या 26
अर्हन्त नहीं कहते हैं। अगली गाथा में दोषरहित को अरहंत कहा है। जरा, व्याधि, जन्ममरण, चतुर्गतिगमन, पुण्यपाप जैसे दोष-कर्मों का नाश करके ज्ञानमय (सर्वज्ञ) अरहंत होता है। स्थापना की दृष्टि से तेरहवें गुणस्थान में स्थित, चौंतीस अतिशय, अष्ट प्रातिहार्य युक्त होते हैं। मार्गणा की दृष्टि से मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय, त्रसकाय, पाँच योग आदि पर्याप्ति प्राण, व जीवस्थान आदि का विचार कर स्थापना अर्हन्त का स्वरूप बताया है।
द्रव्य अरिहंत में अर्हन्त के निर्दोष, निर्मल औदारिक काय का वर्णन है। भाव अरिहंत के रूप में उनके 'केवल' भाव का वर्णन है, इस प्रकार अरहंत का वास्तविक स्वरूप बताया है।20
प्रव्रज्या - इसके पश्चात् अन्तिम प्रव्रज्या का स्वरूप विस्तार से बताया है। मुनिवर वृषभों के ठहरने के स्थान दो गाथाओं में बताए हैं। प्रव्रज्या का सही स्वरूप आगे की गाथाओं में बताया है। गृह-ग्रंथ (परिग्रह)- मोह से मुक्त होना, बाईस परीषह सहना, कषायों को जीतना, पापदंभ से विमुक्त होना यह प्रव्रज्या का स्वरूप है। अगली गाथा में प्रव्रज्या को किन दोषों से रहित होना चाहिए, यह बताते हुए कहा है कि धन, धान्य, वस्त्र, सुवर्ण, शयन, आसन, छत्र, भूमि आदि दान से रहित होना चाहिए। शत्रु-मित्र, निंदा-प्रशंसा, लाभा-अलाभ, तृण-कंचन में समभाव, निरपेक्ष भाव से निर्दोष आहार निष्कषाय प्रव्रज्या होती है। अन्तरंग शुद्धि के बाद बहिरंग का वर्णन करते हैं यथाजातरूप, कायोत्सर्गमुद्रा, शस्त्ररहित, शांत, दूसरों के बताये हुए घर में अस्थायी निवास ऐसी प्रव्रज्या होती है। उपशम-क्षमा, इन्द्रियनिग्रह आदि से युक्त शरीरसंस्कार से वर्जित तथा मद, राग, दोष से रहित प्रव्रज्या होती है। जिसका मूढभाव, आठकर्म, मिथ्यात्व नष्ट हो गया है और जो सम्यक्त्वगुण से शुद्ध है, प्रव्रज्या उसकी होती है। प्रव्रज्या छह प्रकार के संहननों में से कोई भी संहनन करनेवाला ले सकता है। प्रव्रजित पशु, महिला, नपुंसक, कुशील व्यक्तियों का संग व विकथा नहीं करता। स्वाध्याय व ध्यान से युक्त होता है।21
इस विवेचन से स्पष्ट है कि इस काल में भी भावलिंगी मुनि होना संभव है। आत्मध्यान भी संभव है। विशेषतः तीर्थंकरों की अनुपस्थिति में ये ही हमारे लिए जिनेन्द्र के प्रतिरूप हैं, वंदनीय हैं।
1. सुत्तपाहुड, 10, 23 2. भगवती आराधना, 76-8 3. दर्शनपाहुड, 18