Book Title: Jain Vidya 26
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 81
________________ जैनविद्या 26 ज्ञान - मुनि ही साक्षात् ज्ञान है। संयम से संयुक्त, सुध्यानी व मोक्षमार्गी मुनि ही ज्ञान से अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है। ज्ञानी मुनि से ही ज्ञान जाना जाता है। ज्ञान अमूर्त गुण है उसे ज्ञानी मुनि में ही समझाया जा सकता है। सत्पुरुष विनय से ज्ञान प्राप्त करते हैं। मोक्षमार्ग रूपी लक्ष्य को प्राप्त करने वाले मुनि का मतिरूपी धनुष स्थिर होता है। श्रुत प्रत्यंचा व रत्नत्रयरूपी बाण से परमार्थ पर दृष्टि स्थिर रखते हुए मोक्षरूपी लक्ष्य को प्राप्त करते हैं। ज्ञानी मुनि ही ज्ञान का आश्रय होने से ज्ञान है। ज्ञानी के अभाव में ज्ञान निराश्रित है। ज्ञानी के अतिरिक्त कहीं ज्ञान प्राप्त होना संभव नहीं है।" देव - देव शब्द का अर्थ है दाता। अर्थ, धर्म, काम और ज्ञान देनेवाला देव है। अर्थ, धर्म और प्रव्रज्या में जो जिसके पास होता है, देता है। अगली गाथा में धर्म, प्रव्रज्या और देव का अर्थ स्पष्ट किया गया है। दयाविशुद्ध धर्म है। सर्वसङ्ग का परित्याग प्रव्रज्या है। व्यपगतमोही देव है। ऐसा देव भव्यजीवों का उदय करने वाला है। भव्यजीव के लिए प्राप्य धर्म और प्रव्रज्या है, जिसे स्वयं धर्मयुक्त व प्रव्रजित मुनि (आचार्य) ही देता है। वही देव है। तीर्थ – तीर्थ के विषय में कहते हैं कि व्रत व सम्यक्त्व से विशुद्ध, इन्द्रियविषयों में संयत और अपेक्षा-आकांक्षा रहित तीर्थ है। इस तीर्थ में मुनि दीक्षा व शिक्षा रूपी स्नान से स्नात होता है। तीर्थ का अर्थ होता है घाट अर्थात् नदी में उतरने का स्थान। पवित्र स्थलों को तीर्थ कहा जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि निर्मल सुधर्म, सम्यक्त्व, संयम, तप, ज्ञान आदि भावसहित हो तो वे जिनमार्ग में तीर्थ कहे गए हैं। इस गाथा में मुनि जिनका अनुपालन करता है, वह दया अथवा उत्तमक्षमादि धर्म, सम्यक्त्व, षट्कायजीवनिकायों की रक्षा रूप संयम, तप, ज्ञान को तीर्थ कहा है। ये स्वयं मूर्त रूप नहीं है, पालन करते मुनि में ही साकार होते हैं। इस प्रकार मुनि ही तीर्थ है। अर्हन्त - अर्हन्त शब्द की नाम, स्थापना, द्रव्य व भाव चारों निक्षेपों से व्याख्या की गई है। इन निक्षेपों का उपयोग व्यवहार सत्य के लिए किया जाता है, जिससे लोकव्यवहार सुचारु रूप से चल सके। परन्तु यहाँ अर्हन्त शब्द की व्याख्या इन चारों निक्षेपों से तथ्यात्मक रूप से की गई है, व्यवहार से नहीं। सत्तरह गाथाओं में अर्हन्त शब्द की व्याख्या है। अनन्त दर्शन और ज्ञान होने व अष्टकर्मबन्ध का नाश होने से मोक्ष है। ऐसे निरूपम गुणों पर आरूढ़ को अर्हन्त कहते हैं। गुणों से युक्त ही अरहंत है। नाममात्र को

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