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जैन विद्या 26
द्रव्यलिंग परमार्थ नहीं है। परमार्थ व प्रथम तो भावलिंग ही है। द्रव्यलिंग भावशुद्धि के लिए ग्रहण किया जाता है। भावपाहुड में इसी की चर्चा है कि भावलिंग के बिना द्रव्यलिंग व्यर्थ व अकिंचित्कर है।' मोक्षपाहुड में भी द्रव्यलिंगी मुनियों को चारित्र से भ्रष्ट तथा मोक्षमार्ग का विध्वसंक कहा है।' इस भरत क्षेत्र में दुःखमा काल में भी धर्मध्यान होता है। जो इसका अपलाप करते हैं, वे मूढ व अज्ञानी हैं।' पाहुड ग्रन्थों में आचार्य श्री कुन्दकुन्द देव ने साधु के सही स्वरूप के निरूपण को ही विषय बनाया है। अपने ज्ञान और चारित्र के बल पर ही उन्होंने साधुओं के सम्यक् स्वरूप का विवेचन किया है। पुनरुक्तियाँ भी इसीलिए हैं, क्योंकि अज्ञानी साधुओं को बार-बार सचेत किया है।
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बोधपाहुड एक विशिष्ट रचना है। जिनमार्ग में जो कहा है, वह षट्जीव निकाय के लिए हितकर है, आचार्य उसी के कथन की प्रतिज्ञा करते हैं। इसमें 11 अधिकार अर्थात् ग्यारह शब्दों के विशिष्ट अर्थ दिए गए हैं। इन विशिष्ट अर्थों को उन्होंने जिनवरकथित व षट्कायहितंकर कहा है, जिसे वे सकलजन बोधनार्थ कहते हैं। ये ग्यारह शब्द हैं - 1. आयतन, 2. चैत्यगृह, 3. जिनप्रतिमा, 4. दर्शन, 5. जिनबिम्ब, 6. जिनमुद्रा, 7. ज्ञान, 8. देव, 9. तीर्थ, 10. अर्हत और 11. प्रव्रज्या । इन सबका अर्थ मुख्यतः मुनि है। आरम्भिक नौ शब्दों का अर्थ मुनि ही लिया गया है। प्रव्रज्या भी मुनि की प्रव्रज्या का स्वरूप है। अरहन्त शब्द से अरहंत का स्वरूप कथन किया गया है। ये सब अर्थ प्रचलित अर्थों से विशिष्ट, मौलिक व भूतार्थनय से किये गए हैं। 10
आयतन
आयतन शब्द का सामान्य अर्थ है घर, निवास-स्थान, जैसा कि धर्मायतन, देवायतन आदि शब्दों में है। आचार्यश्री तीन गाथाओं में आयतन का अर्थ करते हैं। आयतन का अर्थ है संयतरूप । मन-वचन-कायरूप द्रव्य जिनके स्वाधीन है, इन्द्रियों के विषयों पर जिनका संयम है, वे संयतरूप हैं। अभिप्राय हुआ त्रिगुप्ति युक्त व इन्द्रिय संयमी मुनि संयत रूप है। यह संयत रूप ही आयतन है। दूसरी गाथा में वीतरागी, निष्कषाय महाव्रतधारी महर्षियों को आयतन कहा है। महर्षि वीतरागी व निष्कषाय कहा है। दोनों गाथाओं में बाह्य और आभ्यन्तर रूप से संयमी को आयतन कहा है। आशय यह है कि संयम का स्थान होने से मुनि ही आयतन है। तीसरी गाथा में शुद्धात्म, विशुद्धध्यानी, ज्ञानी (वस्तुतत्त्व का ज्ञाता ) मुनिवृषभ को सिद्धायतन कहा है। शुद्धात्मा का निवास-स्थल होने से यही वास्तविक आयतन है। वह विशुद्धध्यानी व आत्मज्ञ होने से झटिति सिद्धत्व प्राप्त करनेवाला होने से सिद्धायतन (सिद्ध का निवास) कहा गया है। "
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