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जैनविद्या 26
अप्रेल 2013-2014
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मुनिराज ही जिनबिम्ब व जिनप्रतिमा
- डॉ. (प्रो.) कुसुम पटोरिया
आचार्य कुन्दकुन्द दिगम्बर जैन परम्परा के दृढ़स्तम्भ हैं। उनके पाहुडों से स्पष्ट है कि उस समय तक श्रमणों में आडम्बर अधिक बढ़ गया था। उस समय तक साधु अनेक प्रकार के आडम्बरों में लिप्त हो गए थे। सम्पूर्ण लिंगपाहुड में शिथिलताओं का वर्णन है। आचार्य कुन्दकुन्द ने इन सबकी स्पष्ट और कड़े शब्दों में भर्त्सना कर वास्तविक श्रमणजीवन का तपोपूत चित्र उपस्थित किया है और उन्हें साक्षात् जिनेन्द्र का प्रतिरूप कहा है।
आचार्य कुन्दकुन्ददेव की सारी चिन्ता एक ओर आत्मा के वास्तविक स्वरूप को समझाने की है, तो दूसरी ओर श्रमणधर्म का निरूपण कर उन्हें आत्माभिमुख बनाने की है। वे मुनि के द्रव्यलिंग और भावलिंग किसी में भी किंचित् भी शिथिलता नहीं चाहते थे। सुत्तपाहुड में उन्होंने निश्चेल तथा पाणिपात्र को ही जिनेन्द्र - कथित मोक्षमार्ग बताया है। वस्त्रधारी तीर्थंकर भी हो तो मुक्त नहीं होता। नग्नलिंग ही मोक्षमार्ग है, अन्य सब उन्मार्ग हैं।' यहाँ भगवती आराधना की तरह उत्सर्ग-अपवाद लिंग की चर्चा नहीं है।' उन्होंने तीन ही लिंग कहे हैं - एक जिनरूप (अर्थात् नग्नमुनि - वेष ), दूसरे उत्कृष्ट श्रावक का और तीसरा आर्यिका का, चौथा कोई लिंग नहीं है। इनमें से निर्ग्रन्थ मुनि का मार्ग ही मोक्षमार्ग है। वही वंदनीय है । ' दूसरा उत्कृष्ट श्रावक का लिंग है, जो भ्रमण कर भिक्षा द्वारा भोजन करता है तथा पात्र में भोजन करता है। मौन अथवा समितिरूप वचन का प्रयोग करता है। वह इच्छाकार योग्य है। ' तीसरा आर्यिका का लिंग कहा है, परन्तु उनकी प्रव्रज्या को शंका की दृष्टि से देखा है।' इसे ही परवर्ती आचार्यों ने औपचारिक कहा है।