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जैनविद्या 26
आचार्य ने तत्त्व-श्रद्धान को व्यवहार सम्यक्त्व कहा है। उनकी दृष्टि में शुद्ध आत्मा का श्रद्धान निश्चय सम्यक्त्व है। ऐसा सम्यक्त्व ही मोक्ष प्राप्ति के लिए अपेक्षित प्रतीत होता है। इसे उन्होंने रत्नत्रय में सार रूप मोक्ष की प्रथम सीढ़ी कहा है। इसे अच्छे अभिप्राय से धारणीय बताया है।
एवं जिणपण्णत्तं दंसणरयणं धरेह भावेण।
सारं गुणरयणत्तयसोवाणं पढम मोक्खस्स।।21।। पण्डित दौलतरामजी कुन्दकुन्दाचार्य के परम अनुयायी रहे हैं। उन्होंने शास्त्रों का साररूप अपनी कृति 'छहढाला' में आचार्य कुन्दकुन्द के कथन को दोहराया है। उन्होंने लिखा है -
मोक्षमहल की प्रथम सीढ़ी या विन ज्ञान-चरित्रा। सम्यकता न लहे सो दर्शन धारोभव्य पवित्रा।। 'दौल' समझ सुन चेत सयाने काल वृथा मत खोवै।
यह नरभव फिर मिलन कठिन है जो सम्यक नहीं होवे।।3.17॥ पण्डित दौलतरामजी ने भी स्वीकार किया है कि सम्यक्दर्शन मोक्षरूपी महल की प्रथम सीढ़ी है इसके बिना ज्ञान और चारित्र सम्यक्त्व नहीं कहे जा सकते। दौलतराम जी समझाते हुए कहते हैं कि हे चतुर-समझदार, ध्यान से श्रवण कर। समय व्यर्थ मत जाने दे। मनुष्य पर्याय समुद्र में गिरे रत्न के समान पुनः मिलना कठिन है। अतः इसी पर्याय में सम्यक्त्व धारण करो।
आचार्य कुन्दकुन्द ने सार स्वरूप कहा है कि दर्शनहीन वन्दनीय नहीं है। इस वाक्य में रहस्य भरा है। मोक्षमार्गी कुमार्गी नहीं होता। वह कुमार्ग से मुख मोड़ सुमार्ग-मोक्षमार्ग से नाता जोड़ता है। वीतरागता को खोजता है और वीतरागी की शरण में जाता है। वीतरागी की वन्दना से वीतरागता का उपदेश मिलता है। पूज्य जैसा होता है पूजक भी वैसा ही अनुसरण करता है।
सरागी देव से राग की शिक्षा मिलती है जबकि सम्यक्त्व के लिए वीतरागता अपेक्षित होती है। शरीर से निःस्पृहता आवश्यक होती है। जल से भिन्न कमल के समान वह निःस्पृही होकर जीवन जीता है और अपना आत्मकल्याण करने में पीछे नहीं रहता। ऐसे निःस्पृही ही सम्यक्त्व को साकार करते हैं।
अन्त में आचार्य यह भी कहते हैं कि चारित्र अपनी शक्ति के अनुसार करें किन्तु चारित्र के प्रति श्रद्धान अवश्य रखें। जहाँ श्रद्धान होता है श्रद्धा के अनुकूल आचार भी समय आने पर