Book Title: Jain Vidya 26
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 71
________________ जैनविद्या 26 प्रस्तुत विवेचन से प्रतीत होता है कि आचार्य ने 'दसणहीणो ण वंदिव्वो' कहकर दर्शन से भ्रष्टजनों को ऐसा भ्रष्ट बताया है कि वे मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाते। कदाचित् सम्यकचारित्र से भ्रष्टजन सिद्ध हो सकते हैं किन्तु सम्यक्दर्शन से भ्रष्ट सिद्ध हो ही नहीं सकते (3)। सम्यक्त्वरहित अवस्था का महत्त्व प्रतिपादित करते हए कहा गया है कि हजारोंकरोड़ों वर्ष तक उग्र तपश्चरण करने पर भी रत्नत्रय की प्राप्ति नहीं होती। इसका अर्थ है कि बोधि-रत्नत्रय की प्राप्ति में सर्वप्रथम सम्यक्त्व की प्राप्ति आवश्यक है। दर्शन, ज्ञान और चारित्र - तीनों से भ्रष्टजन भ्रष्टों में भ्रष्ट अत्यन्त भ्रष्ट कहे गये हैं। संभवत इस स्थिति से बचने के लिए आचार्य ने मात्र सम्यक्त्व को प्राथमिकता दी है। उन्होंने दृष्टान्तों के द्वारा भी शिष्यों को समझाया है कि जैसे मूल-जड़ के नष्ट होने पर वृक्ष के परिवार की वृद्धि नहीं होती ऐसे ही दर्शन से भ्रष्ट जीव सिद्ध अवस्था को प्राप्त नहीं होते (11)। मोक्षमार्गसम्यग्दर्शन-ज्ञान और चारित्र का समन्वित रूप कहा गया है। किन्तु यहाँ जिनदर्शनजिनधर्म-श्रद्धान को मोक्षमार्ग की जड़ कहा है (11)। ___आचार्य ने सम्यग्दर्शन से भ्रष्टजनों की कार्यप्रणाली को ध्यान में रखकर अपने शिष्यों को समझाते हुए उन्हें सचेत किया है कि ऐसे लोग मिथ्यामार्ग में पड़कर सम्यग्दृष्टियों से यदि नमन कराने के भाव रखते हैं, नमन कराते हैं तो वे लूले और गूंगे होते हैं। वे स्थावरत्व को प्राप्त होते हैं क्योंकि गति और शब्दश्रवणहीनता स्थावरों में ही देखी जाती है। यदि सम्यग्दृष्टि लज्जा, गौरव और भय के वशीभूत होकर मिथ्यादृष्टियों को नमन करते हैं, उनके पाप की अनुमोदना करते हैं तो उन्हें भी बोधि-रत्नत्रय की प्राप्ति नहीं होती। सच्चा सम्यक्त्वी सम्यक्त्व में अडिग रहता है। वह निज की चिन्ता छोड़कर निज सिद्धान्त और श्रद्धान को प्राथमिकता देता है। सम्यग्दर्शन ऐसे संत-समागम से, सान्निध्य से उपलब्ध होना कहा है जो उभय परिग्रह के त्यागी, मन-वचन-काय योगों में संयत, कृत-कारित-अनुमोदना से ज्ञान में शुद्ध रहता है और खड़े होकर आहार लेता है (14)। जिससे सेव्य-असेव्य, कर्त्तव्य-अकर्तव्य का बोध होता है, समस्त पदार्थों की उपलब्धि होती है ऐसा सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन से ही होता है (15)। सम्यग्दृष्टि छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पाँच अस्तिकाय और सातों तत्त्वों के स्वरूप का श्रद्धानी होता है (19)।

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