Book Title: Jain Vidya 26
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 69
________________ 58 जैनविद्या 26 आचार्य कुन्दकुन्द ने सर्वप्रथम मोक्ष के प्रमुख साधनरूप दर्शन-सम्यग्दर्शन का स्वरूप समझाया। सम्यग्दर्शन मात्र से मोक्ष संभव नहीं। अतः उन्होंने सूत्रपाहुड की रचना कर उसे आगम-ज्ञान कराने का श्रम किया। ज्ञान होने के पश्चात् चारित्रपाहुड रचकर मोक्ष पाने के अनुकूल चारित्र की अपेक्षा की। बोधपाहुड से चारित्रिक अनुकूलता दर्शाकर भावपाहुड के माध्यम से भावशुद्धि और तदुपरान्त मोक्षपाहुड लिखकर मोक्ष की चर्चा की। लिंगपाहड में वेष का निर्धारण किया तथा अन्त में शीलपाहुड लिखकर शील का महत्त्व दर्शाया है। इस प्रकार आचार्य ने मोक्ष प्राप्ति के विभिन्न अंगों का विश्लेषण किया है। दर्शनपाहुड, मोक्ष प्राप्ति के साधनों में प्रथम साधन है। आचार्य कुन्दकुन्द ने मनुष्यों को मोक्ष प्राप्ति के विभिन्न उपहारों में यह प्रथम उपहार दिया है। इसमें आचार्य ने दर्शनमूलक धर्म के उपदेशामृत का शिष्यों को पान कराया है। सदुपदेशों से मोक्ष का मार्ग दर्शाया है। आचार्य की मान्यता है कि जो सम्यग्दर्शन से रहित है वह वन्दनीय नहीं है - दसण हीणो ण वंदिव्वो। वन्दनीय कौन है इस सन्दर्भ में आचार्य लिखते हैं कि जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और विनय में निरन्तर लीन रहते हैं, गुणों के धारक आचार्य आदि का गुणगान करते हैं वे वन्दनीय हैं, पूज्य हैं - दसणणाणचरित्ते तवविणये णिच्चकालसुपसत्था। एदे दु वंदणीया जे गुणवादी गुणधराणं ।।23।। इससे स्पष्ट है कि उक्त गुणों में यदि मात्र सम्यग्दर्शन है तो भी व्यक्ति वन्दनीय है। आचार्य की धारणा संभवतः यह रही है कि सम्यक्त्व होने पर उक्त गुणों में अन्य गुणों की उपलब्धि भी संभावित है। आचार्य ने प्रस्तुत पाहुड में सम्यक्त्व को विशेष महत्त्व दिया है। उन्होंने यह भी कहा है कि कोई सम्यक्त्वी क्यों न हो किन्तु यदि सहजोत्पन्न दिगम्बर मुद्रा को मात्सर्य भाव के कारण देखने के योग्य नहीं मानता है तो वह संयमी होने पर भी मिथ्यादृष्टि ही है। गाथा द्रष्टव्य है - सहजुप्पणं रूवं दटुं जो मण्णएण मच्छरिओ। सो संजमपडिवण्णो मिच्छाइट्ठी हवइ एसो।।24।। अवन्दनीयों के विवरण में आचार्य ने यह भी कहा है कि जो देवों के द्वारा वन्दनीय जिनेन्द्र के रूप को देखकर भी स्वयं को बड़ा मानते हैं वे सम्यग्दर्शन से रहित हैं।

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