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जैनविद्या 26
यमक अलंकार - यमक अलंकार माधुर्यमय वातावरण को उपस्थित करता है। जहाँ पर एक तरह के दो शब्द होते हैं, परन्तु उनके अर्थ अलग-अलग होते हैं -
अप्पा अप्पम्म रदो ।।31।। भा.पा.
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यहाँ पर अप्पा का अर्थ स्वयं है और दूसरे 'अप्पम्मि' का अर्थ है आत्मा में अर्थात् अपने आप जो आत्मा में रत होता है उसी को सम्यक्त्व होता है।
भंजसु इंदियसेणं भंजसु मणो मक्कडं पयत्तेण ॥ 90।। भा.पा.
यहाँ 'भंज' क्रिया का दो बार प्रयोग हुआ है जिसमें प्रथम 'भंज' क्रिया नाश करने / तोड़ने के अर्थ में है। द्वितीय 'भंज' वश में करने / आधीन करने के अर्थ में है।
श्लेष अलंकार - एक शब्द के दो या दो से अधिक अर्थ होते हैं
सुत्तम्मि जं सुदिट्ठ, आइरिय-परंपरेण मग्गेण । णादूण दुविह सुत्तं, वट्टदि सिवमग्ग जो भव्वो ।।2।। सु.पा.
'सूत्र' सिद्धान्त/आगम/प्रवचन भी अर्थ है, सुत्त - श्रुत्त भी अर्थ है, सुत्त - सूत्र -धागाडोरी भी अर्थ है। सुत्तपाहुड की तृतीय गाथा में इसका पूर्ण स्पष्टीकरण स्वतः ही पाठक या श्रोता को प्राप्त हो जाता है।
सुत्तम्मि जाणमाणो भवस्स भवणासणं च सो कुणदि ।
सूई जहा असुत्ता, णासदि सुत्ते सहा णो वि ।। 3 ।। सु.पा.
इसमें श्लेष, यमक और उदाहरण तीन अलंकार के साथ मानवीय अलंकरण भी है।
उपमा अलंकार - साहम्म-उवमा या
जहाँ सादृश्यता दिखलाई जाए वहाँ उपमा अलंकार होता है।
भवसायरे अनंते छिण्णुज्झिय - केस - णहरणालट्ठी ।
पुंजदि जदि को विजए, हवदि य गिरिसमधिया रासी । । 2011 भा.पा.
अनंत संसार के समूह को मेरु पर्वत के समान कहा है।
रूपक अलंकार - उवमाणुवमेयम्हि भेदे जादे अभेद गो।
अत्यन्त साम्य के कारण उपमान और उपमेय में भेद होने पर भी अभेद हो वहाँ रूपक अलंकार होता है। यथा -