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विद्या 26
अप्रेल 2013-2014
आचार्य कुन्दकुन्द एवं उनका दर्शनपाहुड
- डॉ. कुलदीपकुमार
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प्राकृत साहित्य के विशाल गगन में आचार्य कुन्दकुन्द और उनका साहित्य सूर्यचन्द्र के समान देदीप्यमान है। आचार्य कुन्दकुन्द और उनके साहित्य ने भारतीय दर्शनशास्त्र को भी एक महत्त्वपूर्ण दृष्टिकोण प्रदान किया है, जिसका मूल्यांकन अनेक विद्वानों ने अपने ग्रन्थों में मुक्त - कण्ठ से किया है। यहाँ हम इसी सन्दर्भ में उनकी एक कृति ' दर्शनपाहुड' का पर्यालोचन करना चाहते हैं ।
ईसा की प्रथम शताब्दी के पूर्वार्द्ध में दक्षिण भारत की पवित्र धरा पर कोण्डकुन्द नामक ग्राम में अवतरित हुए आचार्य कुन्दकुन्द का स्थान दिगम्बर जैन परम्परा में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। उनकी महत्ता इसी प्रमाण से सिद्ध हो जाती है कि उक्त परम्परा में भगवान महावीर और गौतम गणधर के बाद सर्वप्रथम उन्हीं का स्मरण किया जाता है। यथा
मंङ्गलं भगवान वीरो, मंङ्गलं गौतमो गणी । मंङ्गलं कुन्दकुन्दार्यः जैनधर्मोऽस्तु मंङ्गलं ।।
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आचार्य कुन्दकुन्द की कृतियों में से प्रमुख तीन - पञ्चास्तिकाय, प्रवचनसार और समयसार भारतीय दार्शनिक कृतियों में वही स्थान रखती हैं, जो उपनिषद, ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता रखती है। आचार्य कुन्दकुन्द की उक्त कृतियाँ नाटकत्रयी एवं प्राभृतत्रयी के नाम से भी अभिहित की जाती हैं।