Book Title: Jain Vidya 26
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 62
________________ जैनविद्या 26 1. 'दंसणमूलो धम्मो' - धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है। (2) 2. 'मूल विणट्ठाण सिझंति' - सम्यक्त्व रूप मूल के नष्ट हो जाने पर मोक्षरूपी ____ फल की प्राप्ति नहीं होती (10) 3. 'सोवाणं पढम मोक्खस्स' - सम्यग्दर्शन मोक्ष की प्रथम सीढ़ी है। (21) 4. ‘णाणं णरस्स सारो' - ज्ञान मनुष्य जीवन का सार है। (31) सम्यग्दर्शन की प्रधानता इनके अतिरिक्त भी आचार्य कुन्दकुन्द की भाषा में अनेक विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं। यथा - अभिव्यक्ति पर जोर, स्पष्टता, दृढ़ता, सुगमता, युक्तता, शब्दों का उपयुक्त चयन, सकारात्मक एवं नकारात्मक शैली का प्रयोग आदि अनेक विशेषताएँ भरी हुई हैं। आचार्य कुन्दकुन्द की भाषा के सम्बन्ध में मनीषी विद्वान बलभद्र जैन का यह कथन पठनीय है - हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कुन्दकुन्द केवल सिद्धान्त और अध्यात्म के ही मर्मज्ञ विद्वान नहीं थे, अपितु वे भाषा शास्त्र के भी अधिकारी और प्रवर्तक विद्वान थे। उन्होंने अपनी प्रौढ़ रचनाओं द्वारा प्राकृत को नये आयाम दिये, उसका संस्कार किया, उसे सँवारा और नया रूप दिया। इसीलिए वे जैन शौरसेनी के आद्य कवि और रचनाकार माने जाते हैं। ज्ञातव्य है कि कुछ भाषा वैज्ञानिकों ने इनकी कृतियों की भाषा को 'जैन शौरसेनी' भी कहा है। ___ आचार्य कुन्दकुन्द ने सम्यग्दर्शन पर इतना अधिक जोर दिया है - इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि लोग सम्यग्दर्शन पर ध्यान न देकर बाहरी तप, व्रत, उपवास और नियमादि पर ज्यादा ध्यान देते हों। जैसे वर्तमान में भी देखा जाता है कि कोरा आचार ही पढ़ाया जाता है उसके आधार पर शिखर ‘सम्यग्दर्शन और आत्मानुभूति' दोनों अछूते रह जाते हैं, जबकि सभी आचार्यों ने सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन को धारण करना अनिवार्य बतलाया है, तत्पश्चात् ही व्रत, नियम, प्रतिमादि की चर्चा की है तथा सम्यग्दर्शन को ही आचार का मूलाधार बतलाया है। ग्रन्थों में आचार्यों ने अनेक प्रकार के दृष्टान्तों का प्रतिपादन करते हुए बतलाया है कि - जिस प्रकार बिना मूल के वृक्ष नहीं हो सकता, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना व्रत, तप, नियमादि भी व्यर्थ हैं। सम्यग्दर्शन को आचार का आधारस्तम्भ न केवल पूर्ववर्ती आचार्यों ने अपितु उत्तरवर्ती आचार्यों ने भी प्रतिरूपित किया है। अतः यह स्पष्टतया कहा जा सकता है कि सम्यग्दर्शन

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