Book Title: Jain Vidya 26
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 60
________________ जैनविद्या 26 भाषा-शैली प्रस्तुत ग्रन्थ की भाषा शौरसेनी प्राकृत है तथा शैली काव्यात्मक है जो सरस, सरल, सुबोध तथा इतनी अधिक सुगम है कि अधिकांश गाथाओं में तो अन्वय करने की भी आवश्यकता नहीं होती। लौकिक दृष्टान्तों के माध्यम से गहन गूढ़ तत्त्व अध्यात्म एवं आचार जैसे दुरूह विषयों को समझाने का सफल प्रयत्न किया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द की भाषासम्बन्धी और भी अनेक विशेषताएँ हैं जो अन्यत्र दुर्लभ है। यथा (क) सबल दृष्टान्त - पेड़ और जड़ का दृष्टान्त प्रस्तुत करके आचार्य ने सम्यग्दर्शन जैसे दुरूह विषय को समझना इतना सरल एवं रोचक बना दिया है कि एक साधारण व्यक्ति भी इसको मिनटों में समझ सकता है। तथा सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये केवल रूपक ही नहीं `हैं, अपितु सांगरूपक हैं। जड़ की जगह सम्यग्दर्शन को तथा चारित्र की जगह शाखा, पुष्प, फलादि को रखकर विषय को इतना रोचक बना दिया है कि वह जनसाधारण को भी हृदयग्राह्य हो गया है। यथा - - जह मूलम्मि विट्ठे दुमस्स परिवार णत्थि परिवड्ढी । तह जिणदंसणभट्ठा मूलविणट्ठा ण सिज्झति । ।10।। जह मूलाओ खंधो साहापरिवार बहुगुणो होई । तहं जिणदंसणमूलो णिदिट्ठो मोक्खमग्गस्स ।।11।। 49 अर्थात् जिस प्रकार जड़ के नष्ट होने पर वृक्ष के परिवार की वृद्धि नहीं होती, उसी प्रकार · सम्यक्त्व के नष्ट होजाने पर चारित्ररूपी वृक्ष की वृद्धि नहीं होती अर्थात् जो मनुष्य सम्यग्दर्शन से शून्य हैं, रहित हैं, वे लोग मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते। जिस प्रकार मूल अर्थात् जड़ से ही वृक्ष का स्कन्ध और शाखाओं का परिवार वृद्धि आदि से युक्त होता है उसी प्रकार सम्यक्त्व को मोक्षमार्ग का मूल कहा गया है। अगर किसी वृक्ष की जड़ कट गई है तो वह ऊपर से खूब हरा-भरा दिखाई देता हो तो भी उसे नष्ट ही समझो। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति खूब तप, उपवास, नियमादि से युक्त है परन्तु यदि उसमें सम्यग्दर्शन नहीं है तो उसकी उक्त सभी क्रियाएँ व्यर्थ ही समझो।

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