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जैनविद्या 26
के बिना आचार की बात करना ही व्यर्थ है। आचार्य कुन्दकुन्द ने भी इसीलिए सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन को ही आवश्यक बतलाया तथा न केवल आवश्यक अपितु मंगलाचरण के तुरन्त बाद धर्म का मूल ही सम्यग्दर्शन को बतलाया है। यथा -
दंसणमूलो धम्मो उवइट्ठो जिणवरेहिं सिस्साणं। तं सोऊण सकण्णे दंसणहीणो ण वंदिव्वो।।2।।
आचार्य कुन्दकुन्द की यह सबसे बड़ी विशेषता एवं दार्शनिक दृष्टिकोण है कि उन्होंने स्पष्ट कहा है कि इस संसार का मूल हेतु मिथ्यात्व है। यद्यपि ऐसा नहीं है कि अन्य आचार्यों ने ऐसा नहीं कहा है लेकिन जिस शैली में इन्होंने कहा है कि हे भव्य जीवो! तुम कान खोलकर के सुन लो कि सम्यग्दर्शन ही धर्म का मूल है, शायद ही किसी आचार्य ने इस प्रकार से कहा हो। भगवती आराधना' में आचार्य शिवार्य कहते हैं कि -
संसारमूलहेदु मिच्छतं सव्वधा विवज्जेहि।
बुद्धि गुणण्णिदं पि हु मिच्छतं मोहिदं कुणदि।।723।।
अर्थात् मिथ्यात्व संसार का मूल कारण है, उसका मन-वचन-काय से त्याग करो, क्योंकि मिथ्यात्व गुणयुक्त बुद्धि को भी मूढ़ बना देता है।
लेकिन आचार्य कुन्दकुन्द तो स्पष्ट उद्घोष करते हैं कि - सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट जीव ही वास्तव में भ्रष्ट है, चारित्र से भ्रष्ट जीव तो फिर भी सिद्ध हो जाता है परन्तु सम्यग्दर्शन से . भ्रष्ट जीव को निर्वाण की प्राप्ति कथमपि नहीं हो सकती है। यथा -
दंसणभट्ठा भट्ठा दंसणभट्ठस्स णत्थि णिव्वाणे।
सिझंति चरियभट्ठा दंसणभट्ठा ण सिझंति।।3।। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि सम्यग्दर्शन का वर्णन करते-करते आचार्य कुन्दकुन्द सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को भूल गए हों, लेकिन सम्यग्दर्शन के बिना जीव और समाज की क्या दुर्दशा हो रही है - यह वे अपनी आँखों से देख रहे थे अतः उन्होंने दो-तीन बार यह बात स्पष्ट कही है कि मोक्ष का प्रथम सोपान सम्यग्दर्शन है। यथा -
एवं जिणपण्णत्तं दंसणरयणं धरेह भावेण। सारं गुणरयणत्तय सोवाणं पढम मोक्खस्स।।21।।