Book Title: Jain Vidya 26
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 61
________________ 50 जैनविद्या 26 जिस प्रकार यदि किसी पेड़ के पत्ते एवं शाखाएँ सूख गई हैं और जड़ सुरक्षित है तो अनुकूल परिस्थिति के उत्पन्न होने पर वे सभी फिर से हरे-भरे हो जाएँगे, उसी प्रकार अगर जीव को सम्यग्दर्शन है और चारित्र प्रकट नहीं हो पा रहा है तो योग्य समय और परिस्थिति आने पर वह चारित्र भी प्रकट हो जाएगा। दसणभट्ठा भट्ठा सणभट्ठस्स णत्थि णिव्वाणं। सिझंति चरियभट्ठा दंसणभट्ठा ण सिझंति।।3।। जो पुरुष दर्शन से भ्रष्ट हैं वे भ्रष्ट हैं, जो दर्शन से भ्रष्ट हैं उनको निर्वाण नहीं होता क्योंकि यह प्रसिद्ध है कि जो चारित्र से भ्रष्ट हैं वे तो सिद्धि को प्राप्त होते हैं परन्तु जो दर्शनभ्रष्ट हैं वे सिद्धि को प्राप्त नहीं होते। (ख) सामासिक शैली - आचार्य कुन्दकुन्द की भाषा के विषय में ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने जनसामान्य की लौकिक भाषा का प्रयोग किया है लेकिन सर्वथा ऐसा नहीं है। कहीं-कहीं उन्होंने सामासिक श्रेष्ठ साहित्यिक भाषा का भी प्रयोग किया है। इसके अनेक उदाहरण दिखाई देते हैं - सम्मत्तणाणदंसणबलवीरियवड्ढमाण जे सव्वे । कलिकलुसपावरहिया वरणाणी होति अइरेण।।6।। जो पुरुष सम्यक्त्व ज्ञान, दर्शन, बल, वीर्य से वर्द्धमान हैं तथा कलिकलुष पाप अर्थात् मलिन पाप से रहित हैं वे सभी अल्पकाल में वरज्ञानी अर्थात् केवलज्ञानी होते हैं। (ग) अलंकार - अनेक स्थलों पर आचार्य कुन्दकुन्द ने सहज अलंकारों का प्रयोग भी किया है। उदाहरणार्थ अधोलिखित गाथा में आचार्य ने उपमा अलंकार का प्रयोग किया सम्मत्तसलिलपवहो णिच्चं हियए पवट्ठए जस्स। कम्मं वालुयवरणं बंधुच्चिय णासए तस्स।।7।। जिस प्रकार पुरुष के हृदय में सम्यक्त्वरूपी जल का प्रवाह निरन्तर प्रवर्तमान है उसके कर्मरूपी रज-धूल का आवरण नहीं लगता, तथा पूर्वकाल में जो कर्मबंध हुआ हो वह भी नाश को प्राप्त होता है। (घ) सुभाषित निर्माण - आचार्य कुन्दकुन्द की भाषा इतनी सुगठित है कि उसमें सहज ही अनेक सूक्तियों का निर्माण हो गया है। यथा -

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