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जैनविद्या 26
आचार्य कहते हैं - विष खाने से जीव एकबार ही मरता है, लेकिन विषयसेवनरूपी विष से अर्थात् कुशील आचरण से मनुष्य बार-बार मरता है। यदि मनुष्य के सभी अंग उत्तम हैं, सुन्दर हैं, पूर्ण हैं, परन्तु एक शील अंग नहीं है तो सभी अंग व्यर्थ हैं। अतः शील ही निर्मल तप है, शील ही दर्शन की शुद्धता है, शील ही ज्ञान की शुद्धता है, शील ही विषयों का शत्रु है, शील ही मोक्ष की सीढ़ी है। शील से तीव्र दुःख भी समाप्त हो जाते हैं और सुख की प्राप्ति होती है।
निष्कर्षतः आचार्य कुन्दकुन्ददेव कृत अष्टपाहुड के सभी आठों पाहुडों की 503 गाथाओं में मानवीय जीवन के मूल्यात्मक पक्ष का सूक्ष्मता से उद्घाटन कर जीवन के इहलोक के अभ्युदय और पारलौकिक जीवन हेतु निःश्रेयस का सन्मार्ग प्रशस्त करते हैं। जैन दर्शन के विश्रुत विद्वान मनीषी डॉ. कमलचन्दजी सोगाणी के शब्दों में अष्टपाहुड (आठ ग्रन्थों की भेंट) मानव समाज के मूल्यात्मक चेतना के विकास के लिए समर्पित है। श्रेष्ठ मानवीय समाज के उन्नयन हेतु इनका स्वाध्याय अपेक्षित है।
1. षट्प्राभृत षट्पाहुड : आ.श्रुतसागर : हिन्दी टीकाकार : आ.सुपार्श्वमति, पुरोवाक्, पृ. 3 2. षट्प्राभृत षट्पाहुड : आ.श्रुतसागर : हिन्दी टीकाकार : आ.सुपार्श्वमति, पुरोवाक्, पृ. 3 3. डॉ. कमलचन्द सोगाणी : अष्टपाहुड चयनिका : प्रस्तावना, पृ. 3 4. डॉ. कमलचन्द सोगाणी : अष्टपाहुड चयनिका : प्रस्तावना, पृ. 3 5. डॉ. कमलचन्द सोगाणी : अष्टपाहुड चयनिका : प्रस्तावना, पृ. 2 6. अष्टपाहुड, चयनिका, प्राकृत भारती अकादमी
22, श्रीजी नगर, दुर्गापुरा, जयपुर - 302018