Book Title: Jain Vidya 26
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 44
________________ जैनविद्या 26 अप्रेल 2013-2014 33 आचार्य श्री कुन्दकुन्द कृत 'अष्टपाहुड' में जीवन-मूल्य - डॉ. प्रेमचन्द्र रांवका भारतीय धर्म-दर्शन और अध्यात्म के उन्नयन एवं विकास में जिन विभिन्न धाराओं का योग रहा है उनमें श्रमण-धारा का अवदान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। आत्मोन्नयन के मार्ग में तपःसाधना से युक्त श्रमण-धारा के तत्त्व-चिन्तन के इतिहास में तीर्थंकर महावीर और गौतम गणधर के पश्चात् प्रातःवन्द्य श्री पद्मनन्दि कुन्दकुन्दाचार्य भास्कर सदृश भासमान हैं, जिन्होंने दो हजार वर्ष पूर्व विक्रम की प्रथम शती में प्राकृत वाणी में यह सिद्ध किया कि कोई भी मानव परम तत्त्व का अनुभव स्वानुभूति से ही प्राप्त कर सकता है और स्वानुभव आत्म-ज्ञान व आत्म-ध्यान से ही सम्भव है। आचार्य प्रवर कुन्दकुन्द भारतीय अध्यात्म-परम्परा के महान तत्त्वान्वेषी, आत्मानुभवी सफल साधक थे। आचार्यों की परम्परा में, ग्रन्थों के निर्माण में, विषयों के प्रतिपादन में और जैन दर्शन के मौलिक सिद्धान्तों को कालान्तर में प्रामाणिकता प्रदान करने में आचार्य भगवन्त कुन्दकुन्द को महान श्रेय प्राप्त है। तीर्थंकर महावीर और उनके प्रमुख शिष्य इन्द्रभूति गौतम गणधर के साथ मंगलाचरण में उनका (आचार्य कुन्दकुन्द का) नाम-स्मरण बड़े आदर भाव के साथ किया जाता है। प्राकृत साहित्य व शिलालेखों में इनके पाँच नाम मिलते हैं। दक्षिण भारत में आन्ध्रप्रदेश के कौण्डकुन्दपुर में जन्म होने से वे कुन्दकुन्द नाम से विख्यात हुए। कुन्द

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