Book Title: Jain Vidya 26
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 51
________________ जैनविद्या 26 भाव रहित होकर पढ़ने-सुनने से क्या लाभ है? चाहे गृहस्थ हो, चाहे गृह-त्यागी पढिएणवि किं कीरइ, किं वा सुणिएण भावरहिएण।।66।। तुष-मास भिन्न की भांति देहात्म भेदज्ञान रटते हुए शिवभूति मुनि ने शास्त्र ज्ञान न होते हुए भी भाव विशुद्धि से कैवल्य को प्राप्त कर लिया (53)। जैसे तुषसहित तंदल की कण शुद्धि नहीं की जा सकती, इसी तरह परिग्रहसहित जीव की भाव शुद्धि कभी नहीं हो सकती (भ.आ.)। जो अभ्यन्तर परिग्रहरूप (राग, द्वेष, मोह) भावों से मुक्त है वही मुक्त है। केवल बांधवादि छोड़ने से मुक्त नहीं। हे धीर! अभ्यंतर परिग्रह का त्याग करो। यदि शीघ्र चार गतियों को छोड़कर शाश्वत सुख चाहते हो तो भावशुद्ध एवं पूर्णतः निर्मल आत्मा का अभ्यास करो (60)। आत्म-भावना से ही निर्वाण होता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने भाव शुद्धि के लिए बारह भावनाओं का चिन्तन, व्रतों का धारण, ब्रह्मचर्य, परिषह-उपसर्ग सहन आदि बताये हैं। भावसहित द्रव्यलिंग ही मुक्ति का कारण है। ध्यान से मोक्ष होता है, अतः आर्त-रौद्रध्यान छोड़कर धर्मध्यान धारण करो। आत्म-ज्ञान में एकाग्र होना ही ध्यान है। ध्यान द्वारा कर्मरूपी वृक्ष दग्ध हो जाता है। जिस प्रकार कमलिनी स्वभाव से ही जल से लिप्त नहीं होती, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव स्वभाव से ही विषय-कषायों से लिप्त नहीं होता (152)। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष एवं अन्य सभी कार्य शुद्ध भावों में स्थित होने से ही सिद्ध होते हैं। अतः परिणामों (भावों) का शुद्ध होना अपेक्षित है (162)। पूजादि, व्रत सहित परिणाम पुण्य है और मोहरहित आत्म-परिणाम धर्म है। धर्म कर्मक्षय हेतु है। अतः धर्म-स्वरूप आत्मा का ही श्रद्धान, ज्ञान व ध्यान करना चाहिये। भावयुक्त श्रमण व श्रावक मनुष्य-देवादि के सुखों को नहीं चाहता, वह तो आत्महित ही चाहता है। वही मानवत्व का जीवन्त मूल्य है (130-32)। आचार्य कहते हैं - मैं मनवचन-काय से दर्शन-ज्ञान-चारित्रमय भावसहित श्रमण को नमस्कार करता हूँ (129)। मोक्ष पाहुड - 106 गाथाओं में निबद्ध मोक्ष पाहुड में मोक्ष व मोक्ष के कारणों का निरूपण किया गया है। आत्मा की अनन्त सुखरूप सर्वोत्कृष्ट स्थिति ही मोक्ष है। इस पाहुड में आत्मा के तीन रूपों - बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा का निरूपण किया गया है। बहिरात्मा हेय, अन्तरात्मा उपादेय और परमात्मा ध्येय है। जिसने स्पर्शनादि,

Loading...

Page Navigation
1 ... 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100