Book Title: Jain Vidya 26
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 49
________________ जैनविद्या 26 आचार्यदेव स्पष्ट रूप से कहते हैं - यथाजात (जन्मते हुए नग्न शिशुसदृश) रूप को धारण करनेवाले दिगम्बर साधु तिल - तुषमात्र भी परिग्रह नहीं रखते। यदि परिग्रह रखे तो निगोद का पात्र है - 38 जहजायरूव-सरिसो तिलतुसमितं ण गिहदि हत्तेसु । जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदं ॥18॥ इस प्रकार सूत्र पाहुड में ज्ञान के महत्त्व पर बल दिया है कि ज्ञानपूर्वक आचरण ही सुख का साधन है। चारित्र पाहु 45 गाथाओं में निबद्ध इस पाहुड में आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का फल सम्यकचारित्र का धारण बताया है, जो जानता है वह ज्ञान है, जो देखता है वह दर्शन है। ज्ञान और दर्शन के समायोग से चारित्र होता है । वह चारित्र दो प्रकार का है - एक सम्यक्त्वाचरण चारित्र और दूसरा संयमाचरण चारित्र । जिनोपदिष्ट ज्ञान - दर्शन शुद्ध सम्यक्त्वाचरण चारित्र है और शुद्ध आचरणरूप चारित्र संयमाचरण चारित्र है। शंकादि दोषों से रहित, निःशंकितादि गुणों से युक्त, तत्त्वार्थ के यथार्थ स्वरूप को जानकर उनका श्रद्धान एवं आचरण करना ही सम्यक्त्वाचरण चारित्र है। संयमाचरण चारित्र दो प्रकार का है - सागार और अनगार। जो क्रमशः श्रावक और श्रमण के होता है। यह दोनों के लिए जीवन-मूल्य है। आचार्य श्री कुन्दकुन्द का उपदेश दोनों के लिए उपादेय है। वे कहते हैं - हे भव्य ! अज्ञान को ज्ञान से, मिथ्यात्व को सम्यक्त्व से तथा आरम्भ सहित मोह को अहिंसा - अपरिग्रह रूप धर्म से जीतकर संयमाचरण ग्रहण करो । संयमाचरण में श्रावक व श्रमण दोनों के परिपालन पर बल दिया है। अन्त में रागद्वेष के परिहार को सम्यक् चारित्र कहा है । अपरिग्गह समणुण्णेसु सद्दपरिसरस-रूवगंधेसु । रायद्दोसाईणं परिहारो भावणा होंति । । 36 ।। जो जानता है, देखता है, श्रद्धान करता है और स्थिर होता है, वहाँ चारित्र है जं जाणइ तं णाणं जं पिच्छड़ तं च दंसणं भणियं । णाणस्स पिच्छियस्स य समवण्णा होइ चारित्तं । । 3 ।। अण्णाणं मिच्छत्तं वज्जहि णाणे विसुद्दसम्मत्ते । अह मोहं सारम्भं परिहर धम्मे अहिंसाए ||15||

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