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जैनविद्या 26
बोध पाहुड - इस पाहुड की 62 गाथाओं के जानने से ही सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र का पालन होता है। इस पाहुड में कहा गया है - निश्चय से निर्दोष-निर्ग्रन्थ साधु ही आयतन है, चैत्य गृह है, जिन प्रतिमा है, दर्शन है, जिन बिम्ब है, जिन मुद्रा है, ज्ञान है, देव है, तीर्थ है, अरहंत है और प्रव्रज्या है। निश्चय से आयतन आदि आत्मा को ही है। बन्ध, मोक्ष, सुख-दुःख आत्मा के होते हैं। अतः आत्मा ही चैत्य है। छह काय के जीवों का हित करनेवाला चैत्य का स्थान है -
चेइय बन्धं मोक्खं दुक्खं सुक्खं च अप्पयं तस्स।
चैइहरं जिणमग्गे छक्काय हियंकरं भणियं।।७।। जो धर्म, अर्थ, काम और ज्ञान को देता है वही देव है। वह मोह-ममता से रहित है। जिस प्रकार धनुष के अभ्यास एवं बाण से रहित धनुषधारी लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता, उसी प्रकार ज्ञानाभ्यास के बिना बोधि को प्राप्त नहीं किया जा सकता। ज्ञानियों का विनय करके ही ज्ञान को प्राप्त करना चाहिए। पंच इन्द्रियों से निरोध, ख्यातिलाभ, इह-परलोक के भोगों की आशा से रहित आत्मा ही तीर्थ है।
भाव पाहुड - 265 गाथाओं में निबद्ध भाव-पाहुड में आचार्य देव ने मुनि और आत्मा को सम्बोधित करके भाव-शुद्धि का उपदेश दिया है। हे आत्मन! भाव शुद्धि के बिना बाह्य लिंग सार्थक नहीं होता है। भाव-शुद्धि के साथ ही द्रव्य लिंग ग्राह्य है -
. भावो हि पढमलिंगं ण दव्वलिंगं च जाण परमत्थं।
भावो कारणभूदो गुणदोसाणां जिणा विन्ति।।2।। भाव ही प्रथम लिंग है, द्रव्यलिंग को परमार्थ मत समझो। जिनेन्द्र भगवान ने गुणदोषों का कारणभूत भाव लिंग को ही कहा है।
आचार्य कुन्दकुन्ददेव का उद्घोष है कि कोटि वर्ष तप करने पर भी भाव बिना सिद्धि नहीं होती। भावों की शुद्धि के बिना बाह्य परिग्रह का त्याग क्या करें? (4-5)
अंतरंग परिणामों की शुद्धि के बिना बाह्य त्याग, तपश्चरण निष्फल है।
इस संसारी जीव ने अनादि काल से अनन्त संसार विषै भ्रमण कर भावरहित निग्रंथ रूप भी धारण किया, परन्तु सिद्धि नहीं मिली। हे जीव! तूने नरक गति में भीषण दुःख सहे, कभी तिर्यंचगति, कभी मनुष्य गति में तीव्र दुःख पाये, परन्तु शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना बिना संसार भ्रमण नहीं मिटा।