Book Title: Jain Vidya 26
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 45
________________ जैन विद्या 26 कुन्द पुष्प की भाँति वे अध्यात्म चिन्तम में धवल / उज्ज्वल यश के धारी थे। निरन्तर स्वाध्याय, चिन्तन-मनन व लेखन में संलग्न रहने से ग्रीवा की वक्रता से बेखबर वे वक्रग्रीवाचार्य भी कहे गये। वय में लघु होने पर भी ज्ञान - प्रज्ञा के क्षेत्र में अपनी महनीयता से एलाचार्य बने। आचार्य श्री कुन्दकुन्द का सम्पूर्ण व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व यथा नाम थ गुण का सार्थक था। कुल मिलाकर असाधारण प्रतिभा व ज्ञान के धनी आचार्य कुन्दकुन्द असीम ज्ञानलब्धि के अवधारक थे। वे चारणऋद्धिधारी थे। ऊर्ध्वमुखी चेतना से युक्त वे देहातीत थे। 95 वर्ष की आयु में उन्होंने समाधि - मरण लिया। 34 आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने 84 पाहुडों की रचना की। वर्तमान में उपलब्ध ग्रन्थों में पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, समयसार, नियमसार, रयणसार, अष्टपाहुड और बारसाणुपेक्खा कुल गाथा संख्या 1711 हैं। प्रारम्भ के तीन ग्रन्थ नाटकत्रय या प्राभृतत्रय कहलाते हैं। तिरुक्कुरल जो तमिल भाषा का नीति ग्रंथ है आचार्य कुन्दकुन्द - रचित माना जाता है। इसे पंचम वेद भी कहा जाता है। पाहुड संस्कृत के प्राभृत शब्द का समानार्थक है, जिसका अर्थ है उपहार या भेंट। तीर्थंकरों के द्वारा प्रकृष्ट रूप से प्रस्थापित मानवीय हितार्थ सन्देश, निर्देश, उपदेश पाहुड कहलाये। प्रकृष्ट आचार्यों के द्वारा जो धारण किया गया है, व्याख्यायित हुआ है, वह प्राभृत है।' आर्यिका सुपार्श्वमति के अनुसार- वीतराग प्रभु के द्वारा निर्दोष श्रेष्ठ विद्वान आचार्यों की परम्परा से भव्यजनों के लिए द्वादशांगों के वचनों के समुदाय के एक देशवाचन को भी प्राभृत कहते हैं । प्राकृत के अनुसार जो पदों से स्फुट अथवा व्यक्त है वह पाहुड है। 2 प्रकर्षेण आसमन्तात् भृतं प्राभृतम् - जो उत्कृष्टता के साथ सब ओर से भरा हुआ हो, जिसमें पूर्वापर विरोधरहित सांगोपांग वर्णन हो, उसे प्राभृत कहते हैं। इस परिभाषा के अनुसार आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने पाहुडों में तद्विषयक सांगोपांग वर्णन किया है। आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा प्रदत्त अष्टपाहुड आठ ग्रन्थों की भेंट है जो समाज में मूल्यात्मक चेतना के विकास के लिए समर्पित है। ये अष्टपाहुड - आठ ग्रन्थ मनुष्यों को मूल्यात्मक तुष्टि की ओर अग्रसर होने के लिए प्रेरित करते हैं। जीवन का संवेगात्मक पक्ष ही मूल्यात्मक तुष्टि का आधार होता है। ये दर्शन पाहुड आदि आठ ग्रन्थ जीवन को समग्र रूप में देखने की दृष्टि प्रदान करते हैं। 4

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