Book Title: Jain Vidya 26
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 46
________________ 35 जैनविद्या 26 आचार्य श्री कुन्दकुन्द-प्रणीत प्राकृत भाषा में निबद्ध 'अष्टपाहुड' आठ स्वतंत्र प्रकरणों का संग्रह है। ये हैं - दंसण पाहुड, चारित्त पाहुड, सुत्त पाहु, बोध पाहुड, भाव पाहुड, मोक्ख पाहुड, लिंग पाहु और सील पाहुड | ये अष्ट पाहुड श्रावक व श्रमण के आचरण के निर्देशक ग्रन्थ हैं। इस ग्रन्थ में कुन्दकुन्दाचार्य के आचार्य / प्रशासक रूप में दर्शन होते हैं, जहाँ उन्होंने आचरण को अनुशासित करने का उपदेश दिया है। साथ ही शिथिलाचरण के विरुद्ध आचरण से सावचेत रहने का सन्देश दिया है। ऐसा लगता है कि चतुर्विध संघ के आचरण में आगत शैथिल्य के निराकरण हेतु आचार्यश्री का मानवमात्र के प्रति मार्मिक सम्बोधन है। दंसण पाहुड (दर्शन-प्राभृत) की 36 गाथाओं में सम्यग्दर्शन, सुत्त पाहुड (सूत्र प्राभृत) की 27 गाथाओं में सम्यग्ज्ञान, चारित्त पाहुड ( चारित्र प्राभृत) की 45 गाथाओं में सम्यक्त्वाचरण व संयमाचरण के महत्त्व का प्रतिपादन किया गया है। बोध में 62 पाहुड गाथाओं में साधु के 11 स्थल, भाव पाहुड की 165 गाथाओं में भाव शुद्धि पर विशेष बल दिया गया है। मोक्ष पाहुड की 106 गाथाओं में मोक्ष के कारणों का निरूपण हुआ है। लिंग पाहुड की 22 गाथाओं में बाह्य लिंग मात्र से मोक्ष की अप्राप्ति और शील पाहुड की 40 गाथाओं में शील का माहात्म्य - शील को मोक्ष की प्रथम सीढ़ी बताया है। इस प्रकार कुल 503 गाथाओं में आचार्यश्री ने श्रावक व श्रमण दोनों के लौकिक और पारलौकिक अभ्युदय व निःश्रेयस का मार्ग प्रशस्त किया है। आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य में उन जीवन-मूल्यों का समावेश है जिनसे प्राणीमात्र का हित सम्पादित होता है। साहित्य वही है जो हमारी आत्मचेतना को जगा दे। यतोऽभ्युदयः निःश्रेयस सिद्धिः सधर्मः - धर्म वही है जो मानव मात्र के इस लोक के और अभ्युदय पारलौकिक जीवन में देह मुक्ति का कारण बने । आचार्य कुन्दकुन्द का वाङ्मय यह अभीष्ट सिद्धि प्रदाता है - संसारदुःखतः सत्वान् यो धरति उत्तमे सुखे । अष्टपाहुड में निबद्ध साहित्य श्रमण व श्रावक / साधु व गृहस्थ दोनों के हितार्थ प्रशस्त मार्ग का निदर्शन है। प्रारम्भ के तीन पाहुङ दर्शन, ज्ञान व चारित्र की रत्नत्रयी है। ये पाहुड आत्मोन्नयन हेतु पाथेय रत्न रूप हैं। प्रत्येक पाहुड अपने में स्वतंत्र ग्रंथ है। प्रत्येक का प्रारम्भ मंगलाचरण व प्रतिज्ञा वाक्य से होता है और समापन शिक्षात्मक निष्कर्ष रूप में है। ये आठ ग्रन्थ जीवन-मूल्यपरक है जहाँ प्रत्येक मूल्यात्मक अनुभूति मनुष्य के ज्ञानात्मक और संवेगात्मक पक्ष की मिली-जुली अनुभूति होती है। समग्र दृष्टि इन दोनों के महत्त्व को स्वीकारने से उत्पन्न होती है। '

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