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जैन विद्या 26
उदारता - आचार्य कुन्दकुन्द के पाहुड सभी के आत्मानुशीलन के लिए हैं। उनकी गाथाएँ व्यक्ति-सापेक्ष न होकर सर्वजगत के उन आत्माओं के लिए हैं, जो संसार से पार होना चाहते हैं या आत्मविशुद्ध परिणामों की इच्छा रखते हैं। वे कहने में नहीं चूकते कि हजारों वर्षों तक तपश्चरण करनेवाला यदि सम्यग्दर्शन से रहित है तो रत्नत्रय प्राप्त कर ही नहीं सकता । यथा - सम्मत्त- - विरहिया णं सुट्टु वि उग्गं तवं चरंताणं ।
लहंति बोहिलाहं अवि वास - सहस्सकोडीहिं ।। 5 ।। द.पा. सुत्तपाहुड में देखिए -
उक्किट्ठ सीहचरियं, बहुपरियम्मो य गरुयभारो य। जो विहरइ सच्छंद, पावं गच्छदि होदि मिच्छत्तं ॥9॥
अर्थ गुण - अष्टपाहुड में निरर्थक शब्दों का प्रयोग नहीं है, उनके प्रयुक्त अर्थ एक से एक अर्थबोधक हैं यथा -
• दंसणमूलो धम्मो = धर्म का मूल दर्शन है (द.पा. 2)
सम्मत्तरयण = सम्यक्त्वरूपी रत्न (दं.पा. 4)
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• साहापरिवार = शाखा परिवार (दं.पा. 11),
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सूत्तत्थं (सु. पा. 5)
समवण्णा होदि चारित्तं
(चा.पा.3)
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- णिग्गंथा संजदा पडिमा
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(बो.पा. 10)
व्यक्ति गुण - जहाँ पर गृहस्थ, श्रावक या श्रमण को आधार बनाकर कथन किया
ता है वहाँ व्यक्ति गुण होता है।
(ज्ञान और दर्शन) के समायोग से चारित्र होता है ।
निर्ग्रन्थ संयत जंगम प्रतिमा है, वे वन्दनीय हैं।
• णाणाए जिणमुद्दा - ज्ञान से जिनमुद्रा है। (बो. पा. 18 )
- सिवपुरिपंथ - भाव शिवपुरी का मार्ग है। (भा.पा. 6 )
• सुद-दाराई विसए मणुयाणं वढदे मोहो - मनुष्यों का मोह सुत, पत्नी आदि के ..कारण से बढ़ता है। (मो.पा. 10)