Book Title: Jain Vidya 26
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 41
________________ 30 जैनविद्या 26 करुणे विप्पलंभत्ते, संते तु उत्तरोत्तरे। महुरत्तं च आणंदं चित्तद्दवित्त- भावए। माधुर्य गुण करुण, विप्रलम्भ एवं उत्तरोत्तर शान्त रस में पाया जाता है, इससे मधुरताआनन्द एवं चित्त द्रवीभूत भाव को प्राप्त होता है। जहजादरूवसरिसो, तिलतुसमित्तं, ण गिहदि हत्थेसु। जइ लेदि अप्पबहुगं, तत्तो पुण जादि णिग्गोद।।18।। सु.पा. श्रमण यथाजात बालक के समान होते हैं, वे अपने हाथ में तिल-तुष मात्र/किंचित् भी ग्रहण नहीं करते हैं। यदि वे ग्रहण करते हैं तो निगोद को प्राप्त होते हैं। 'निगोद' कहने में करुण रस है। साधक साधना अवस्था में स्थित होकर किंचित् भी वस्तु ग्रहण करते हैं तो वे निगोद पर्याय में जाते हैं। चारित्रमार्ग की ओर अग्रसर होनेवाले साधक के लिए कहा - पव्वज्ज संगचाए पयट्ट सुतवे सुसंजमे भावे। होदि सुविसुद्धझाणं, णिम्मोहे वीयरायत्ते।।16।। चा.पा. अरहंत मुद्रा वास्तव में दीक्षा एवं शिक्षा देनेवाली होती है। यथा - अरहंतमुद्द एसा दायारी दिक्ख-सिक्खा य॥18॥ बो.पा. सुकुमारता - अष्टपाहुड की गाथाएँ निर्मल भावों को उत्पन्न करनेवाली हैं, इनके शब्दों में अर्थों के साथ एक-एक पद में सुकुमारता है। यथा - जीवविमुक्को सबओ, दसणमुक्को य होदि चलसबओ। सबओ लोय - अपुज्जो, लोउत्तयम्मि चलसबओ।।143।। भा.पा. जंजाणदितं णाणं, जं पिच्छदितं च दंसणं भणियं।।3।। चा.पा. धम्मो दया विसुद्धो ....... .......।।25।। बो.पा. अक्खाणि बाहिरप्पा, अंतरअप्पा हु अप्पसंकप्पो। कम्म-कलंकविमुक्को, परमप्पा भण्णदे देवो।।5। मो.पा. सीलं रक्खंताणं, दसणसुद्धाण दिढचरित्ताणं ।।12।। शी.पा.

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