Book Title: Jain Vidya 26
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 38
________________ जैनविद्या 26 27 म जह विसयलुद्ध विसदो, तह थावर जंगमाण घोराणां। सव्वेसि पि विणासदि, विसयविसं दारुणं होदि।।21।। शी.पा. इसमें इन्द्रिय विषयों को विषयरूपी विष कहा है। इस गाथा में उदाहरण के साथ-साथ अनुप्रास एवं रूपक अलंकार भी है। दृष्टान्त अलंकार - आचार्य कुन्दकुन्द के पाहुडों में नीति तत्त्व की बहुलता है, इसलिए उपमान वाक्य और उपमेय वाक्य बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव होने पर दृष्टान्त अलंकार का प्रयोग हो गया। बिंब च पडिबिंब च दिहते परिदिस्सदे। यथा - देहादिचत्तसंगो, माणकसाएण कलुसिओ धीर। अत्तावणेण जादो, बाहुबली कित्तियं कालं।।44।। भा.पा. यहाँ मान कषाय के कारण में बाहुबली का दृष्टान्त है, निदान के लिए मधुपिंग का - महुपिंगो णाम मुणी देहाहारादिचत्तवावारो।।45।। भा.पा. दूसरा दृष्टान्त वशिष्ठ मुनि का दिया गया है - . अण्णं च वसिट्टमुणी। बाहु नामक मुनि दोष के कारण दण्डक नगर को जला देते हैं, जिसके परिणामस्वरूप वे रौरव नामक नरक को प्राप्त हुए (49 भा.पा.)। विशुद्ध भाववाले शिवभूति मुनि का दृष्टान्त (53), द्वैपायन रत्नत्रय में भ्रष्ट होने पर अनंतसंसार को प्राप्त हुए (50)। विशुद्ध परिणाम शिवकुमार मुनि युवतिजनों से परिवृत होकर भी संसार-सागर से पार हुए (51 भा.पा.)। ऐसे अनेकानेक दृष्टान्त भावपाहुड में हैं। मोक्षपाहुड में सुहागे का दृष्टान्त है। (मो.पा. 24) उत्प्रेक्षा अलंकार - संभावणा हि उव्वेखे- सम्भावना जहाँ होती है वहाँ उत्प्रेक्षा है। पुरिसो वि जो ससुत्तो, ण विणासदि सो गदो वि संसारे। सच्चेयण पच्चक्खं, णासदि तं सो अदिस्समाणो वि।।4। सु.पा. अर्थान्तरन्यास अलंकार - सामण्णं वा विसेसो वा साधम्मेदर अत्थए। अत्यंतर णियासो तु तं अण्ण-अण्ण-रुवए।। जहाँ सामान्य या विशेष साधर्म या वैधर्म युक्त प्रस्तुत होती है वहाँ अर्थान्तरन्यास होता है। अष्टपाहुडों में इस तरह के भी प्रयोग हैं। यथा -

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