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जैनविद्या 26
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सम्मत्त-णाणं-दसण-बल-वीरिय-वड्माण जे सव्वे।
कलि-कलुस-पावरहिया वरणाणी होंति अइरेण।।6।। दं.पा. इसमें चतुर्विध सम्यक्त्व के आधार पर उत्कृष्ट ज्ञानी के ज्ञान रूप शान्त भाव को दर्शाया है। सुखरूप शान्त रस के लिए सुत्तपाहुड ग्रन्थ की पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं
इच्छायारमहत्थं सुत्तठिणो जो ह छंडए कम्म।।14।। सुत्त पा. वात्सल्य रस -
उच्छाह-भावणासं पसंससेवा सुदंसणे सद्धा।
ण जहदि जिणसम्मत्तं, कुव्वंतो णाणमग्गेण।।14।। चा.पा. अट्टपाहडों में अलंकार -
शब्द और अर्थ सहित काव्य में आवश्यकतानुसार सौन्दर्य के उपकरण भी आ जाते हैं। अध्यात्म क्षेत्र में अलंकरण स्वानुभूति को उत्पन्न करते हैं। ये आभ्यन्तर रसास्वाद को उत्पन्न कर उत्साह, भावना, सेवा, श्रद्धा, वैराग्य, भक्ति एवं अतिशय, अनुपम गुणों की ओर ले जाते हैं। आचार्य के पाहुड चरित्र प्रधान नहीं हैं, वे स्वयं विशुद्ध भावों से युक्त मूलोत्तर गुणी विशुद्धता, वीतरागता, ज्ञायक भाव, समत्व एवं रत्नत्रय के आश्रम को दिखलाते हैं। वे रूपक, उपमा, यमक, श्लेष, दृष्टान्त, उदाहरण उत्प्रेक्षा, स्वाभावोक्ति, समासोक्ति, अन्योक्ति, अतिशयोक्ति, दीपक आदि अलंकारों को रखते नहीं, अपितु स्वयं ही काव्य गति में आ जाते हैं। आचार्यश्री के काव्यों में अनुप्रास, उपमा, रूपक, दृष्टान्त एवं उदाहरणों की बाहुलता है।
अनुप्रास अलंकार - सद्द सम्मं च वेसम्म, अणुप्पासे सुरस्स जो
जहाँ पर शब्द-साम्य और स्वर की वैषम्यता होती है वहाँ अनुप्रास होता है। अन्त्यानुप्रास आचार्य के सभी पाहुडों में है।
सम्मत्त-सलिल-पवहो, णिच्चं हियए पवट्टदे जस्स।
कम्मं वालुयवरणं, बंधुच्चिय णासदे तस्स।।7।। दं.पा. इसके द्वितीय चरण के जस्स और चतुर्थ चरण के ‘तस्स' में अन्त्यानुप्रास है। वर्णों की आवृत्ति या साम्यता प्रत्येक पाहुड में है।
दसणभट्टा भट्टा, दंसणभट्टस्स णत्थि णिव्वाणं। सिझंति चरियभट्टा, दंसणभट्टा ण सिझंति।।3।। दं.पा. चेइयबंध मोक्खं दुक्खं सुक्खं च अप्पयं तस्स। चेइहरं जिणमग्गे, छक्काय हियकरं भणियं॥9॥ बो.पा.