Book Title: Jain Vidya 26
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 29
________________ 18 जैनविद्या 26 परमार्थ में स्वसमय और व्यवहार में परसमय होता है। समओ सव्वत्थ सुंदरो लोए (समयसार3) अर्थात् इस संसार में समय-विशुद्ध आत्मचिंतन सर्वत्र प्रशंसनीय होता है। 'समयसार पाहुड' के सभी अधिकार शुद्धात्म के सुमेरु के कूट हैं। ज्ञान, ज्ञेय और चारित्र के दार्शनिक विश्लेषणवाले 'प्रवचनसार पाहुड' में यथार्थ आत्मस्वरूप का साक्षात्कार है। 'नियमसार पाहुड' में अध्यात्म के मार्ग पर आरूढ़ श्रमणों के लिए षटावश्यक कर्म की विशुद्धि का आलोक है। अट्ठपाहुड और उनका काव्यात्मक मूल्यांकन - आचार्य कुन्दकुन्द ने विविध पक्ष युक्त पाहुड ग्रन्थों की रचना की है। वे सभी अध्यात्म जगत में ‘अट्ठपाहुड' नाम से नहीं, अपितु ‘पाहुड' नाम से जाने जाते हैं। ‘अट्ठपाहुड' में दसणपाहुड, सुत्तपाहुड, चारित्रपाहुड, बोहपाहुड, भावपाहुड, मोक्खपाहुड, लिंगपाहुड और सीलगुणपाहुड (सीलपाहुड) ये आठ पाहुड नाम के अनुसार अपने-अपने विषय की विशुद्ध आत्मस्वरूप की दृष्टि को दिखलाते हैं। इनमें भाव, गति, लय, कवित्व शक्ति, ओज, प्रसाद एवं माधुर्य गुण, शब्द और अर्थ की गंभीरता तथा रमणीय अर्थ की सजीवता है। ये सभी पाहुड गाहा' (गाथा) छंद में निबद्ध हैं। इनमें अनुष्टुप, गाहू, विग्गाहा, विपुला आदि छंद भी अट्ठपाहुड ग्रन्थों में छन्द - चरणों, वर्णों एवं मात्राओं के आकर्षक बन्धन से काव्य में प्रवाह, सौन्दर्य और गेयता आ जाती है। जिसे सुनने-पढ़ने से मधुर संगीत जैसा आनन्द प्राप्त होता है। आचार्य कुन्दकुन्द । के छन्द-प्रबन्धन में संसार रोकने की कला है। इनके प्रबन्धन में संसार के बन्धन कहे जानेवाले राग, द्वेष एवं मोह को स्थान नहीं है। इनके काव्य की पद्यात्मक विधा में समत्व है, समभाव है और अध्यात्म रस की सुरसरिता के विशुद्धतम जल की अनंत कल्लोले हैं, जो अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त शक्ति के कीर्तन से 'अप्पा मे परमप्पा' का पाठ पढ़ा जाती हैं। यही देती है विशुद्ध परिणामों की गति, वीतरागता की अनुपम प्रगति और सर्वज्ञ पथ की मति। इनकी गाथाएँ जो भी गाता है वह पाता है सिंह-सम निर्भय वृत्ति। कुन्दकुन्द के पाहुड ग्रन्थों में मूलतः कहने के लिए तो गाथा छन्द है, पर वे कई प्रकार की हैं। गाथा - पढम बारह मत्ता, बीए अट्ठारहेहिं संजुत्ता। . जह पढ़मं तह तीअं, दह पंच विहूसिया गाहा।।54।। प्राकृत पैंगलम्

Loading...

Page Navigation
1 ... 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100