Book Title: Jain Vidya 26
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 27
________________ जैनविद्या 26 इस प्रकार इस अधिकार में सम्यग्दर्शन-ज्ञानसहित शील की महिमा बताई है, उसे ही मोक्ष का कारण बताया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सम्पूर्ण अष्टपाहुड श्रमणों में समागत या संभावित शिथिलाचार के विरुद्ध एक समर्थ आचार्य का सशक्त अध्यादेश है, जिसमें सम्यग्दर्शन पर तो सर्वाधिक बल दिया गया है, साथ में श्रमणों के संयमाचरण के निरतिचार पालन पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला गया है, श्रमणों को पग-पग पर सतर्क किया गया है। सम्यग्दर्शन रहित संयम धारण कर लेने पर संयमाचरण में शिथिलता अनिवार्य है। सम्यग्दर्शन रहित शिथिल श्रमण स्वयं को तो संसारसागर में डुबोते ही हैं, साथ ही अनुयायियों को भी ले डूबते हैं तथा निर्मल दिगम्बर जिनधर्म को भी कलंकित करते हैं, बदनाम करते हैं। इस प्रकार वे लोग आत्मद्रोही होने के साथ-साथ धर्मद्रोही भी हैं - इस बात का अहसास आचार्य कुन्दकुन्द को गहराई से था। यही कारण है कि उन्होंने इस प्रकार की प्रवृत्तियों का अष्टपाहुड में बड़ी कठोरता से निषेध किया है। आचार्य कुन्दकुन्द के हम सभी अनुयायियों का यह पावन कर्तव्य है कि उनके द्वारा निर्देशित मार्ग पर हम स्वयं तो चलें ही, जगत को भी उनके द्वारा प्रतिपादित सन्मार्ग से परिचित करायें, चलने की पावन प्रेरणा दें - इसी मंगल कामना के साथ इस उपक्रम से विराम लेता हूँ। - श्री टोडरमल स्मारक भवन, ए-4, बापूनगर, जयपुर-15 (राज.)

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