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जैनविद्या 26
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चौरासी लाख उत्तरगुण हैं, इन्हें शील कहते हैं। यह तो सामान्य परद्रव्य के संबंध की अपेक्षा शील-कुशील का अर्थ है और प्रसिद्ध व्यवहार की अपेक्षा स्त्री-पुरुष के संग की अपेक्षा कुशील के अठारह हजार भेद कहे हैं। इनके अभावरूप अठारह हजार शील के भेद हैं।"
वास्तव में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही शील है, इनकी एकता ही मोक्षमार्ग है। अतः शील को स्पष्ट करते हुए कहते हैं -
णाणं चरित्तहीणं लिंगग्गहणं च दंसणविहूणं। संजमहीणो य तवो जइ चरइ णिरत्थयं सव्व।।5।। णाणं चरित्तसुद्धं लिंगग्गहणं च दंसणविसुद्धं।
संजमसहिदोय तवो थोओ वि महाफलो होइ।।6।। - चारित्रहीन ज्ञान निरर्थक है, सम्यग्दर्शनरहित लिंगग्रहण अर्थात् नग्न दिगम्बर दीक्षा लेना निरर्थक है और संयम बिना तप निरर्थक है। यदि कोई चारित्रसहित ज्ञान धारण करता है, सम्यग्दर्शनसहित लिंग ग्रहण करता है और संयमसहित तपश्चरण करता है तो अल्प का भी महाफल प्राप्त करता है।'
आगे आचार्य कहते हैं कि सम्यग्दर्शनसहित ज्ञान, चारित्र, तप का आचरण करनेवाले मुनिराज निश्चित रूप से निर्वाण की प्राप्ति करते हैं।
जीवदया, इन्द्रियों का दमन, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, सन्तोष, सम्यग्दर्शन, ज्ञान, तप- ये शील के ही परिवार हैं (19)। विष के भक्षण से तो जीव एकबार ही मरण को प्राप्त होता है, किन्तु विषयरूप विष (कुशील) के सेवन से अनन्तबार जन्म-मरण धारण करने पड़ते हैं।
शील बिना अकेले जान लेने मात्र से यदि मोक्ष होता है तो दशपूर्वो का ज्ञान जिसको था, ऐसा रुद्र नरक क्यों गया (31)? अधिक क्या कहें, इतना समझ लेना कि ज्ञानसहित शील ही मुक्ति का कारण है। अन्त में आचार्यदेव कहते हैं -
जिणवयणगहिदसारा विषयविरत्ता तवोधणा धीरा। __ _ सीलसलिलेण बहादा ते सिद्धालयसुहं जंति।।38।। . - जिन्होंने जिनवचनों के सार को ग्रहण कर लिया है और जो विषयों से विरक्त हो गये हैं, जिनके तप ही धन है और जो धीर हैं तथा जो शीलरूपी जल से स्नान करके शुद्ध हुए हैं, वे मुनिराज सिद्धालय के सुखों को प्राप्त करते हैं।