Book Title: Jain Vidya 26
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 24
________________ 13 जैन विद्या 26 आगे कहते हैं कि जिन्होंने सर्वसिद्धि करने वाले सम्यक्त्व को स्वप्न में भी मलिन नहीं किया है, वे ही धन्य हैं, वे ही कृतार्थ हैं, वे ही शूरवीर हैं और वे ही पंडित हैं (89) । अन्त में मोक्षपाहुड का उपसंहार करते हुए आचार्य कहते हैं कि सबसे उत्तम पदार्थ निज शुद्धात्मा ही है, जो इसी देह में रह रहा है। अरहंतादि पंचपरमेष्ठि भी निजात्मा में ही रत हैं और सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र भी इसी आत्मा की अवस्थाएँ हैं; अतः मुझे तो एक आत्मा का ही शरण है (105) । इस प्रकार इस अधिकार में मोक्ष और मोक्षमार्ग की चर्चा करते हुए स्वद्रव्य में रति करने का उपदेश दिया गया है तथा तत्त्वरुचि को सम्यग्दर्शन, तत्त्वग्रहण को सम्यग्ज्ञान एवं पुण्य-पाप के परिहार को सम्यक्चारित्र कहा गया है। अन्त में एकमात्र निज भगवान आत्मा की ही शरण में जाने की पावन प्रेरणा दी गई है। इस अधिकार में समागत कुछ महत्वपूर्ण सूक्तियाँ इस प्रकार हैं 1 1. आदसहावे सुरओ जोई सो लहइ णिव्वाणं- आत्मस्वभाव में सुरत योगी निर्वाण का लाभ प्राप्त करता है। (12) 2. परदव्वादो दुग्गड़ सव्वादो हु सुग्गई होई - परद्रव्य के आश्रय से दुर्गति होती है और स्वद्रव्य के आश्रय से सुगति होती है। (16) 3. तम्हा आदा हु मे सरणं- इसलिए मुझे एक आत्मा की ही शरण है। (105) 4. जो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सकज्जमि । जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणो कज्जे । । 31 ।। योगी व्यवहार में सोता है, वह अपने स्वरूप की साधना के काम में जागता है। और जो व्यवहार में जागता है, वह अपने काम में सोता है। 5. किं बहुणा भणिएणं जे सिद्धा णरवरा गए काले । सिज्झिहहि जे वि भविया तं जाणह सम्ममाहप्पं । । 88 ।। अधिक कहने से क्या लाभ है, इतना समझ लो कि आज तक जो जीव सिद्ध हुए हैं और भविष्यकाल में होंगे, वह सब सम्यग्दर्शन का ही माहात्म्य है।

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