Book Title: Jain Vidya 26
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 22
________________ जैनविद्या 26 __ जिस प्रकार कमलिनी स्वभाव से ही जल से लिप्त नहीं होती, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव भी स्वभाव से ही विषय-कषायों में लिप्त नहीं होता (154)। आचार्यदेव कहते हैं कि जो भावसहित सम्पूर्ण शील-संयमादि गुणों से युक्त हैं, उन्हें ही हम मुनि कहते हैं। मिथ्यात्व से मलिन चित्तवाले बहुत दोषों के आवास मुनिवेष धारी जीव तो श्रावक के समान भी नहीं हैं (155)। जो इन्द्रियों के दमन व क्षमारूपी तलवार से कषायरूपी प्रबल शत्रु की जीतते हैं, चारित्ररूपी खड्ग से पापरूपी स्तंभ को काटते हैं, विषयरूपी विष के फलों से युक्त मोहरूपी वृक्ष पर चढ़ी मायारूपी बेल को ज्ञानरूपी शस्त्र से पूर्णरूपेण काटते हैं(158); मोह, मद, गौरव से रहित और करुणाभाव से सहित हैं; वे मुनि ही वास्तविक धीर-वीर हैं (159)। वे मुनि ही चक्रवर्ती, नारायण, अर्धचक्री, देव, गणधर आदि के सुखों को और चारण ऋद्धियों को प्राप्त करते हैं तथा सम्पूर्ण शुद्धता होने पर अजर, अमर, अनुपम, उत्तम, अतुल, सिद्ध सुख को भी प्राप्त करते हैं (161)। भावपाहुड का उपसंहार करते हुए आचार्यदेव कहते हैं कि सर्वज्ञदेव कथित इस भावपाहुड को जो भव्य जीव भलीभांति पढ़ते हैं, सुनते हैं, चिन्तन करते हैं वे अविनाशी सुख के स्थान मोक्ष को प्राप्त करते हैं (165)। ___ इसप्रकार हम देखते हैं कि भावपाहुड में भावलिंग सहित द्रव्यलिंग धारण करने की प्रेरणा दी गई है। प्रकारान्तर से सम्यग्दर्शन सहित व्रत धारण करने का उपदेश दिया गया है। (6) मोक्षपाहुड एक सौ छह गाथाओं में निबद्ध इस पाहुड में आत्मा की अनन्तसुखस्वरूप दशा मोक्ष एवं उसकी प्राप्ति के उपायों का निरूपण है। इसके आरम्भ में ही आत्मा के बहिरात्मा, अन्तरात्मा एवं परमात्मा - इन तीन भेदों का निरूपण करते हुए बताया गया है कि बहिरात्मपना हेय है, अन्तरात्मपना उपादेय है और परमात्मपना परम उपादेय है (4)। आगे बंध और मोक्ष के कारणों की चर्चा करते हुए कहा गया है कि परपदार्थों में रत आत्मा बंधन को प्राप्त होता है और परपदार्थों से विरत आत्मा मुक्ति को प्राप्त करता है (13)। इस प्रकार स्वद्रव्य से सुगति और परद्रव्य से दुर्गति होती है - ऐसा जानकर हे आत्मन्! स्वद्रव्य में रति और परद्रव्य में विरति करो (16)।

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